हर व्यक्ति का कोई न कोई
ड्रीम प्रोजेक्ट होता है. हमारा भी एक ड्रीम प्रोजेक्ट रहा है. वह है हमारी
आत्मकथा कुछ सच्ची कुछ झूठी. विगत कुछ वर्षों से इसका लेखन चल रहा था. कभी कुछ
जोड़ा जाता, कभी कुछ हटाया जाता. पिछले लगभग एक वर्ष से यह पूर्णता की स्थिति में
लैपटॉप में सुरक्षित थी. कुछ परिचितों के भरोसे उसके प्रकाशन के लिए हाथ-पैर मारे
मगर सभी जगह से निराशा ही हाथ लगी. इसके बाद दिमाग से नमी-गिरामी प्रकाशकों का
ख्याल निकाल दिया. सबके अपने नखरे तो हम कौन से कम नखरेबाज. एक पल में निर्णय लिया
कि अब इसे किसी नामी प्रकाशक से नहीं छपवायेंगे भले ही वो घर आ जाये. इसके बाद
विगत कुछ माह से इधर-उधर हाथ-पैर चलाये.
इस हाथ-पैर चलाने के बाद एक
बात लागू हुई, हमारे साथ. वो ये कि बगल में छोरा, शहर में ढिंढोरा. हुआ ऐसा कि एक
दिन हमारे प्रिय लखन लाल मिलने घर आये. बातचीत के दौरान उन्होंने कुछ सच्ची कुछ
झूठी की चर्चा छेड़ दी. जब उनको पता चला कि अभी भी वो पाण्डुलिपि के रूप में लैपटॉप
में सुरक्षित है तो वे तुरंत उसके प्रकाशन करवाने के लिए बोले. उनकी बातों से लगा
कि एक वे ही नहीं बहुत से लोग इंतजार में हैं. लोगों की क्या कहें, हम खुद अपने
ड्रीम प्रोजेक्ट के धरालत पर उतर आने के इंतजार में हैं. बस, बात की बात में
उन्होंने तुरंत एक प्रकाशक के नाम पर अपनी सहमति देते हुए अंतिम मुहर लगाई.
लखन की विश्वासपरक सहमति के
बाद तुरत-फुरत प्रकाशक से बात करके सारी बात अंतिम रूप से तय की. इसके बाद कुछ
सच्ची कुछ झूठी को प्रकाशन हेतु प्रेषित कर दिया. सब कुछ ठीक रहा तो फरवरी अंतिम
सप्ताह में या कि मार्च पहले सप्ताह में हमारी कथा आपके हाथ होगी.
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