मुलाकात जब पहली बार हुई तो न
फिल्मों की तरह पहली नजर वाला आकर्षण उभरा, न पहली नजर के प्रेम जैसा कुछ एहसास हुआ. कुछ
दिनों की कुछ मुलाकातें जो हँसी-मजाक के साथ ख़तम हो गईं. हम दोनों की अपनी-अपनी राहें
थीं, अध्ययन वालीं, सो आगे चल दिए. पढ़ने
को, एक ठो डिग्री लेने को. पर वो कहते हैं न कि दुनिया गोल है,
किसी न किसी दिन फिर मिलते हैं. हम दोनों फिर मिले, अबकी कुछ साल बाद मिले.
पहली बार की मुलाकात के समय के
मुकाबले अबकी मुलाकात में हम दोनों कुछ परिपक्व भी थे. इस परिपक्वता में भी पहली नजर
के आकर्षण जैसा कुछ न हुआ,
न इधर, न उधर. इसके बाद मुलाकातें हुई,
कई बार हुईं, नियमित न सही मगर जल्दी-जल्दी हुईं.
वैचारिकता के अपने-अपने धरातल निर्मित हो चुके थे. सोचने-समझने की मानसिकता भी विकसित
हो चुकी थी. क्या सही है, क्या गलत है की दृष्टि विकसित हो चुकी
थी. ऐसे में महज आकर्षण जैसा कुछ नहीं होना था. यदि होना होता तो पहली बार की मुलाकात
में हुआ होता. पहली बार मिलने पर न हुआ तो कई साल जब दोबारा मिले, तब ऐसा होना था मगर नहीं हुआ.
ऐसा भी नहीं कि सौन्दर्य बोध का
अभाव रहा हो. आँखों में चुम्बकीय आकर्षण, चेहरे पर प्राकृतिक मुस्कान, सादगी का प्रतिरूप होने के बाद भी पहली नजर के आकर्षण से बचने का कारण शायद
ये रहा हो कि उसे कभी भी देह के मापदंडों पर नहीं आँका. बहरहाल, समय गुजरता रहा, मुलाकातें चलती रहीं मगर ख़ामोशी उसी
तरह बनी रही.
उस ख़ामोशी के साए में कुछ स्वर
गूँजे... कुछ कहने का प्रयास हुआ...
उस दिन उससे पहली बार मिलना तो
हो नहीं रहा था. पहले भी कई-कई बार मुलाकात हो चुकी थी, ये बात और है
कि पहली मुलाकात में एक आकर्षण सा महसूस हुआ था. उस पहली मुलाकात के कई वर्षों बाद
जब उससे मिलना हुआ तो ठीक वही एहसास हुआ जो पहली मुलाकात के समय हुआ था. मिलना-जुलना
नियमित तो नहीं किन्तु होता रहा. आपस में बातचीत, हँसी-मजाक,
छेड़छाड़, गपशप किन्तु उस शाम का मिलने ने दिल को
झंकृत कर दिया. समझ नहीं आ रहा था कि ये प्यार है या फिर जब पहली बार मुलाकात हुई थी,
वो प्यार था?
बेधड़क किसी से भी कुछ भी कह देने
की सामर्थ्य कहीं चुकती सी लगने लगी. बहती नदी के धारे संग-संग भावनाएं बन रही थीं, दोस्त की बाँह
थामे हिम्मत बटोरने की कोशिश की जा रही थी. अंततः बहती आँखें उसे जाते हुए देखती रहीं
और कभी उसका कहा सत्य साबित हुआ कि आँसू सँभाल कर रखिये, किसी
दिन हमारे लिए भी बहाने पड़ेंगे.
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