04 जनवरी 2019

विश्वास को अविश्वास में बदलने से रोकें


विश्वास और अविश्वास के बीच बस एक ‘अ’ होता है. यही एक अक्षर कब किसके विश्वास को अविश्वास में बदल दे कहा नहीं जा सकता. पढ़ने-लिखने-बोलने में महज एक वर्ण है मगर वास्तविकता में देखा जाये तो विश्वास का अविश्वास में बदलना एक लम्बी प्रक्रिया है. यह प्रक्रिया व्यक्ति-व्यक्ति के अंतर्संबंध पर निर्भर होती है. दो व्यक्तियों का आपस में कैसा सम्बन्ध है, उनके बीच कैसा साहचर्य है, उनका तालमेल कैसा है यह विशिष्ट कारक के रूप में कार्य करता है. किसी के प्रति अचानक से ही विश्वास नहीं जागता है ठीक उसी तरह किसी के प्रति अचानक से अविश्वास भी नहीं पनपता है. किसी पर विश्वास का पैदा होना जितनी जटिल प्रक्रिया है, जितनी दीर्घकालिक स्थिति है उससे ज्यादा जटिल है उस विश्वास का बने रहना, उस विश्वास का बनाये रखना. विश्वास का बनना महज एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर भरोसा करना ही नहीं होता है बल्कि उसके साथ कहीं गहराई तक एक-दूसरे को जोड़ लेना भी होता है. ऐसे में विश्वास का दरकना न केवल संबंधों को नुकसान पहुँचाता है बल्कि व्यक्तियों को भी तोड़ देता है. 


विश्वास के साए से उत्पन्न अविश्वास से व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करने लगता है. ऐसा व्यक्ति अवसाद का शिकार भी हो जाया करते हैं. समाज में आये दिन ऐसी बहुत सी घटनाएँ सुनाई देती हैं जिनमें व्यक्ति का अविश्वास से उपजी स्थितियों से संघर्ष न कर पाने के कारण अपने जीवन को समाप्त करते देखा गया है. विश्वास का बनना और फिर उसमें अविश्वास का बीज पड़ जाना वर्तमान जीवन-शैली में बहुतायत में देखने को मिलने लगा है. भौतिकतावाद की अंधी दौड़ में शामिल सारा समाज एकाकी होकर न जाने किस मंजिल को पाना चाहता है. इस चाहना में वह अकेला भी है. उसका कोई साथ देने आगे आता भी है तो वह शंका के घेरे में आ जाता है. आपाधापी, भागदौड़, शंका, संदेह, एकाकीपन आदि के साये में कोई कैसे निर्विकार भाव से सफलता की ओर अग्रसर हो सकता है. ऐसे में किसी व्यक्ति पर विश्वास करना भी क्षणिक प्रक्रिया होती है. ऐसा उस समय तक ही रहता है जब तक कि सामने वाला व्यक्ति किसी तरह की स्वार्थपूर्ति में सहायक सिद्ध होता है. ऐसा न हो पाने की दशा में अथवा किसी तरह से उसके लाभ कि प्रत्याशा में अवरोधक सा बनने की स्थिति में वह तत्काल ही अविश्वास की अवस्था में आ जाता है. विश्वास से अविश्वास की तरफ बढ़ने की यह प्रक्रिया तत्काल प्रभावी हो जाती है.

आज जबकि आर्थिक सशक्तिकरण के दौर में गलाकाट प्रतियोगिता का चरम देखने को मिल रहा है वहाँ विश्वास जैसी कोई भी स्थिति का स्वागत होना चाहिए. व्यक्तियों को चाहिए कि आपस में भी समन्वय की स्थापना करते हुए विश्वास भरे संबंधों में अविश्वास को पनपने न दें. यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो निश्चय ही यह समाज के लिए दुखद ही नहीं चिंताजनक भी है. यहाँ ध्यान रखना होगा कि व्यक्ति तो आने-जाने हैं मगर समाज कल भी था, आज भी है, कल भी रहेगा. न सही अपने लिए, अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए विश्वास को और मजबूत करने की आवश्यकता है.

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