पूर्वाग्रहों से युक्त समाज
में प्रत्येक कार्य किसी वाद से घिरा हुआ, उससे प्रभावित हुआ समझा, माना जाने लगता
है. वह कार्य भले ही समाजोपयोगी हो या फिर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से कोई कार्य कर
रहा हो मगर यदि उस कार्य में किसी पक्ष से सम्बंधित कोई स्थिति दिखाई देती है तो
उससे इतर सम्बन्ध रखने वालों के लिए वह कार्य एकतरफा मानसिकता वाला हो जाता है.
हाल-फ़िलहाल ऐसा ही कुछ वर्तमान में होने लगा है. मानसिकता में राजनैतिक
पक्ष-विपक्ष इस तरह हावी हो चुका है कि राजनीति से किसी तरह का सम्बन्ध न रखने
वाले भी अपना पूर्वाग्रह प्रदर्शित करने लगते हैं. ऐसे बहुत से लोगों को देखा है
जो किसी भी राजनैतिक दल से सम्बंधित नहीं हैं, उनके घर-परिवार में भी कोई राजनीति
से सम्बंधित नहीं है, अभी या कभी पूर्व में उनका या उनके किसी परिजन का राजनीति से
कोई सम्बन्ध नहीं रहा है, ऐसे लोग भी राजनैतिक पूर्वाग्रह से युक्त होकर अपने
विचारों का, अपनी मानसिकता का प्रदर्शन कर देते हैं. ऐसा कुछ वर्तमान में स्वच्छता
अभियान को लेकर चल रहा है. सफाई खुद के लिए आवश्यक होने के बाद भी राजनैतिक
पूर्वाग्रह से लिप्त हो गई है.
अभी कुछ दिनों पहले एक
कार्यक्रम में सहभागिता करने के दौरान बिहार में आयोजक के छोटे भाई से इसी तरह की
मानसिकता से भरा एक घटनाक्रम सुनने को मिला था. उसके द्वारा केले के छिलकों को
फेंकने के लिए कूड़ेदान की खोज की जा रही थी. आसपास उसे कूड़ादान न दिखाई देने पर
उसने वहीं किसी व्यक्ति से उसके बारे में जानकारी माँगी. बजाय कूड़ेदान की जानकारी देने
के अगले व्यक्ति ने अपना पूर्वाग्रह उसके ऊपर ज़ाहिर करते हुए उससे पूछ ही लिया,
क्या भाजपा के, मोदी के आदमी हो? इस घटना को सुनकर एक पल को हँसी छूट गई थी. उस
दिन जितनी तेजी से हँसी आई थी, उससे ज्यादा तेजी से हँसी अभी आई, जबकि हम खुद एक
कार्यक्रम में सहभागिता करके वाराणसी से वापस उरई आ रहे थे. हँसने की स्थिति यह है
कि ठहाका मारकर हँसते हैं, ऐसे में कई बार सोचना पड़ जाता है कि कहाँ बैठे हैं,
किसके साथ बैठे हैं. बहरहाल, वाराणसी से लौटना हो रहा था. वातानुकूलित कोच होने के
कारण कागज के लिफाफे में चादर, तौलिया आदि यथास्थान रखे हुए थे. चादर, तौलिया
निकाल लेने के बाद यह कागज़ का लिफाफा हमारे बहुत काम आता है. ट्रेन में यह कागज़
हमारी रचनाशीलता का गवाह बनता है, हमारी सक्रियता का साथी बनता है. इसके अलावा ऐसा
कोई कागज़ जिसमें किसी भी तरफ लिखा जा सकता है, सदैव हमारे काम का रहता है. ऐसे में
आसपास वालों के खाली लिफाफे भी हम अपने कब्जे में ले लिया करते हैं.
उस दिन दोपहर बाद चली ट्रेन आधी
रात के आसपास लखनऊ पहुँची. तब तक हमारे हिस्से में हमारे अलावा दो लोग और थे. वे
अपने-अपने लिफाफों को खाली कर चुके थे, जो अब हमारे कब्जे में थे. लखनऊ में आने
वाले लोग एकसाथ आये. आधी रात की हड़बड़ी में वे आते ही जैसे खाने और सोने की सोच कर
ही आये थे. सीट पर कब्ज़ा जमाते ही पहले तो उनका भोजन करना हुआ. उनकी सुविधा के लिए
तब तक हम बगल में अपने साथ के बाकी सदस्यों के पास बैठ गए. लौटने पर वे लोग
अपने-अपने लेटने की सुविधा का दोहन करने का विचार बनाकर चादर वगैरह लिफाफों से
निकालकर उन्हें कोच की धरती की भेंट चढ़ा चुके थे. लिफाफों का उपयोग सबके दिमाग में
नहीं होता है मगर उनको फेंकने का तरीका तो दिमाग में होना चाहिए. यह उनके द्वारा
फेंके गए लिफाफे देखकर महसूस हुआ. कई हिस्सों में फटे लिफाफे गंदगी सी फैलाये हुए
दरवाजे के पास ही पड़े थे. बजाय उन लोगों से कुछ कहने के हमने उन लिफाफों को ये
सोचकर उठाया कि एक तो गन्दगी साफ़ हो जाएगी और यदि ज्यादा बुरी हालत में नहीं होने
तो हमारे काम आ जायेंगे.
लिफाफों के उठाते ही एक
ज्यादा स्मार्ट से सज्जन ने टोका, क्यों भाईसाहब आप भाजपा से जुड़े हैं? लिफाफे जिस
मुद्रा में हाथ में थे सोचा कि उनके मुँह पर मारते हुए जवाब दे ही दें मगर उनकी
उम्र का ख्याल कर हँस दिए. उन लिफाफों को तह बनाते हुए हमने देखा वे सज्जन मंद-मंद
मुस्कुराते हुए कभी हमें, कभी उन लिफाफों की तरफ देखे जा रहे थे. उनकी मानसिकता समझ
आ ही चुकी थी, सोचा कि कुछ झटकेदार इनकी खोपड़ी में घुसा ही दें. काम आ सकने वाले
लिफाफों की तह बनाकर उन्हें अपने बैग के हवाले किये तो उनकी आँखें कुछ चौड़ी हुईं.
उनके हावभाव में प्रश्नवाचक देखकर उनकी तरफ जवाब फेंका, आपको पता नहीं मोदी जी की
योजना? उनके प्रश्नवाचक चिन्ह को और बड़ा होते देखा और उसे अपनी तरफ से और बड़ा कर
दिया यह कहते हुए कि उपयोग किये गए ये कागज़ के लिफाफे सही से तह करके किसी स्टेशन
पर जमा कर दो तो प्रति लिफाफे बीस रुपये मिलते हैं. अबकी वे महाशय कुछ सन्नाटा सा
खींचते समझ आये और हमने भी बैग पर ऐसे कब्ज़ा जमाया जैसे उसमें कोई बड़ा खजाना रखा
हुआ हो.
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