डायरी लेखन किसी समय में
अद्भुत और सशक्त विधा मानी जाती थी. आज उसकी क्या स्थिति है, कह नहीं सकते क्योंकि
इसके बारे में अब पढ़ने को मिलता नहीं है. हम भी किसी समय डायरी लिखा करते थे. रोज
के रोज उस दिन से सम्बंधित अपनी स्थिति के बारे में, उस दिन घटित घटनाचक्र के बारे
में लिखा करते थे. यह आदत हमारे अन्दर हमारे बाबा जी द्वारा विकसित की गई थी. उनके
द्वारा हम तीनों भाइयों को एक-एक डायरी देते हुए बताया गया था कि इसका क्या उपयोग
करना है. लिखने का आनुवांशिक शौक मिला हुआ था, इस कारण कभी अख़बार में, कभी किसी
पत्रिका में, कभी किसी कागज़ पर कुछ न कुछ लिखने की आदत या कहें शौक बना हुआ था, जो
आज भी बरक़रार है. बाबा जी की तरफ से डायरी मिलने के बाद उसमें रोजनामचा जैसा कुछ न
कुछ लिखा जाता. उस समय यह समझ न थी कि डायरी का महत्त्व क्या होता है, इसके लिखने
का क्या प्रभाव होता है. बस दिमाग में था कि बाबा जी ने बताया है, कहा है रोज
डायरी लिखने के लिए, दिन भर की गतिविधि के बारे में लिखने के लिए सो लिखना है.
समय के साथ सोच बदलती रही.
लेखन की स्थिति बदलती रही. लेखन में परिपक्वता आती रही. विचारों में गंभीरता आती
रही. डायरी का महत्त्व समझ आता रहा. इसके साथ-साथ समय के साथ-साथ डायरी लेखन का
महत्त्व भी समझ आता रहा. डायरी का आकार बढ़ता रहा, उसमें विचारों की गंभीरता बढ़ती
रही. दिन भर चाहे कितने भी सच्ची-झूठी से गुजरना पड़ा हो पर रात के अकेलेपन में
डायरी के साथ पूरी सच्चाई के साथ बात करते. भले ही दिन भर की गतिविधियाँ उसके साथ
न बांटी जाती हों मगर ऐसी किसी भी बात को न छिपाया जाता जिसने दिल-दिमाग पर अपना
असर डाला हो. समय के साथ डायरी केवल रोजनामचा जैसी न रह गई बल्कि उस दोस्त की तरह
नजर आने लगी जिससे सभी कुछ कहा जा सकता था, हर बात उसके साथ शेयर की जा सकती थी. हम
बदलते रहे, उम्र बदलती रही, समय बदलता रहा, स्थान बदलता रहा मगर डायरी लिखने की
आदत या कहें कि शौक न बदला.
उसी दौरान कुछ ऐसा हुआ कि
अपनी तमाम डायरी आग के हवाले करनी पड़ीं. हॉस्टल में जाने के दौरान डायरी लेखन ने
संकट पैदा किया तो उस कालखंड में डायरी से दूरी बना ली. बहुत सारे सच्चे दोस्तों
में शामिल डायरी ने अपनी मित्रता को न छोड़ा. हमने भी उसका साथ न छोड़ा. अब डायरी
लेखन किस एक पन्ने पर होता और लिखने के बाद समाप्त कर दिया जाता. अब ऐसा रोज की
जगह कभी-कभी किया जाने लगा. अपनी विचाराभिव्यक्ति के बजाय दूसरों की स्थिति बचाए
रखने की एक जिम्मेवारी सी दिखाई दी. समय के साथ सबकुछ बदलता-बदलता कहाँ से कहाँ आ
गया, समझ न आया. डायरी लिखना ज्यों का त्यों बना रहा, बस उसका स्वरूप बदलता रहा.
एक बार फिर फुटकर कागजों में अपने मनोभावों को व्यक्त करने की जगह उन्हें संगठित
रूप में डायरी में संभालना शुरू किया. ऐसा करते ही लगा जैसे समय फिर एक बार हमारी
परीक्षा लेने को सामने आ खड़ा हुआ है. परिस्थितयां कुछ ऐसी बनी कि डायरी लेखन का
सिलसिला 13 दिसम्बर 2001 को पूरी तरह से बंद कर दिया. न दिल
कब्जे में था, न दिमाग नियंत्रण में था और तो और हम खुद भी अपने नियंत्रण में नहीं
थे. उन दिनों सारे कार्यों से जैसे अवकाश सा ले लिया था.
गुजरते समय ने तकनीक से
परिचित करवाया. समय ने अपना इम्तिहान लेना बंद न किया. खुद से, परिस्थितियों से,
शारीरिक कष्टों से, मानसिक कष्टों से लड़ते-जूझते इंटरनेट से संपर्क करवाया. लगा कि
डायरी लेखन का आधुनिक संस्करण सामने आ गया मगर इससे बचते रहे. ऐसा करने के पीछे कारण
था अपनी भावनाओं के, अपनी मनोस्थिति के सार्वजनिक करने से बचने का. ब्लॉग लेखन
होता रहा, लगातार होता रहा मगर डायरी लेखन की कमी शिद्दत से महसूस होती रही.बहुत
बार हिम्मत की कि ब्लॉग की गोपनीयता के द्वारा डायरी लेखन को ऑनलाइन जिंदा किया
जाये मगर हिम्मत न जुटा सके. तकनीक से दोस्ताना सम्बन्ध होने के बाद भी इसकी
गोपनीयता पर कभी भी पूरी तरह से विश्वास न कर सके. अब फिर 13 दिसम्बर 2001
से बंद सिलसिला इस वर्ष 26 जनवरी से फिर शुरू
किया है. डायरी को डायरी के रूप में ही संकलित किया जा रहा है. समय ने और दिल-दिमाग
ने अनुमति दी तो यह भी किसी न किसी रूप में ब्लॉग लेखन के रूप में सबके सामने
आएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि बहुत लम्बे समय के खुद को समझाने के बाद यह समझ आ गया है
कि सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले के जीवन में कुछ भी निजी नहीं होता है, कुछ
भी निजी नहीं होना चाहिए. सब कुछ सही-सही गुजरा तो डायरी का ऑनलाइन संस्करण आप
सबके बीच होगा, जल्द ही.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें