31 दिसंबर 2018

ख़ामोशी से वो ख़ामोशी ओढ़ लेना


वह भी साल का अंतिम दिन था. मन में कुछ और चल रहा था. तैयारियाँ कुछ और हो रही थीं. सभी अपने-अपने काम में लगे हुए थे. किसी को आभास नहीं था कि कहीं कुछ बुरा सा होने वाला है, बुरा ही होने वाला है. यही जीवन की अनिश्चितता होती है जो इंसानों को मजबूर कर देती है. इसी अनिश्चय ने सब कुछ निश्चित होने के बाद भी अपना दाँव चल दिया. करना कुछ और था, किया कुछ और जाने लगा. जाना कहीं और था और जाने कहीं और लगे. उस दिन ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था कि जीवन की नश्वरता पर गौर किया जाता. सब कुछ सामान्य गति से, अपनी ही गति से चल रहा था कि एक खबर ने अन्दर तक हिला डाला. संबंधों-रिश्तों का एक और मजबूत आधार सबको आधारहीन करके इस असार संसार से विदा ले चुका था. कुछ पल पहले जिसके साथ कुछ योजना बनी हो, जिसके साथ आने वाले समय के बारे में चर्चाएँ हुई हों उसी का अचानक से ख़ामोशी ओढ़ लेना समझ से परे था.


इस समझ से परे होने वाली स्थिति के बाद भी सबकुछ जाना-समझा गया और खुद को नियंत्रित किया गया. जिस तरह की स्थिति से परिचय कराया गया, ठीक वैसी ही स्थिति से कुछ वर्षों पहले खुद का साक्षात्कार हो चुका था. स्थिति की, परिस्थिति की गंभीरता का आकलन सहजता से किया जा सकता था. सबकुछ नियंत्रित करने के पहले खुद को नियंत्रित करना आवश्यक था. सब कुछ संयमित करने के लिए खुद को संयमित करना अपेक्षित था. इसे स्वभाव की विशेषता कहा जाये या आत्मविश्वास कि कभी भी किसी समस्या जैसी स्थिति में, संकट की स्थिति में भी अपना संयम नहीं खोया, अपना धैर्य नहीं खोया. यही कारण था कि उस दिन भी सबकुछ अपने आपमें समेटकर स्थिति को किसी और तरीके से दर्शाया, बताया गया. जहाँ एक दिन बाद जाने की योजना बनी थी, वहां उसी रात को निकलना पड़ा. ख़ुशी के माहौल के बीच ग़म के माहौल ने अपना सिर उठाया.

ऐसा महसूस हो रहा था जैसे प्रकृति भी उस खबर से हिल गई थी. जाने वाले साल की रात और आने वाले साल का दिन जैसे एक-दूसरे से गले लग कर आँसू बहाने में लगे थे. परिजनों की आँखें भीगी हुई थीं, रिश्तेदारों-परिचितों की आँखें नाम थीं और आसमां भी आँसू बहाने में लगा था. चार कंधे चल दिए बारिश के बीच, नए साल के पहले दिन इस बुरी खबर से अनजान लोगों की शुभकामनाओं को बटोरते हुए अंतिम संस्कारों का निर्वहन शेष परिजन करने में लगे हुए थे. अन्दर-बाहर भीगते लोग खुद को अकेला-अकेला सा महसूस कर रहे थे. सिर से पिता का साया उठने के दर्द को समझ सकते थे. हम बस धैर्य बंधाने की स्थिति में ही थे. वही कर रहे थे, वही कर सकते थे. इन सबके बावजूद अंतिम सत्य यही है कि दुखों का पहाड़ हमेशा खुद को ही उठाना होता है. दुखों के बादलों के बीच बरसते बादलों को पछाड़ने की कोशिश हो रही थी. जिसे जाना था, वो जा चुका था शेष बचा था बस दुःख, आँसू, यादें. कहने की, जताने की, दर्शाने की जरूरत समझे बिना बरसते पानी के साथ बह जाने दिया अन्दर का दर्द, अपना कष्ट.

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