गाँधी
को अहिंसा के लिए भले जाना जाता हो मगर इसकी व्यावहारिकता पर विचार नहीं किया गया।
बीते कुछ वर्षों में न केवल मंच से वरन फ़िल्मी मुन्नाभाई ने गांधीगीरी के द्वारा
अहिंसा के व्यावहारिक रूप को नया रूप दिया। ऐसा साबित करने का प्रयास किया गया
मानो सिर्फ अहिंसा के द्वारा ही समाज में क्रांतिकारी सोच पैदा की जा सकती है। ऐसे
दिखाया जाने लगा जैसे वर्तमान सामाजिक परिदृश्य, स्थितियों में अहिंसा ही सारी
समस्याओं का हल है। गाँधी जी की अहिंसा से सदियों पहले भी अहिंसा भारतीय समाज का
हिस्सा रही। न केवल हिस्सा रही बल्कि यह भारतीय चिंतन परम्परा में प्रमुख रही। भारतीय
चिंतन परम्परा में वेदों, धर्मग्रंथों, पातंजलि योग में तथा बौद्ध, जैन धर्म में
अहिंसा की अभिव्यक्ति के कई आयाम विकसित होते रहे हैं। पातंजलि योग सूत्र के
अनुसार समस्त प्रवृतियाँ, जो बैर-भाव उत्पन्न करती हैं, की समाप्ति ही अहिंसा है
तो बौद्ध धर्म के अनुसार जीव-जगत की रक्षा करना ही अहिंसा है। गाँधी जी
हिंसा-अहिंसा के मध्य एक बारीक रेखा खींच कर सारे समाज में अहिंसा का
प्रचार-प्रसार कर रहे थे। उन्होंने लिखा है-“अहिंसा का अर्थ उसके गत्यात्मक अर्थों
में, जानबूझ कर कष्ट सहना है। इसका अर्थ यह नहीं कि हम बुरा काम करने वाले व्यक्ति
के सामने विनम्रता के साथ घुटने टेक दें। इसका अर्थ तो यह है कि हम आततायी की
इच्छा के विरोध में अपनी समस्त आत्मशक्ति को झोंक दें। यह हमारे अस्तित्व का तकाजा
है और इस नियम के अंतर्गत काम करते हुए एक व्यक्ति के लिए भी यह संभव है कि वह
अन्याय के आधार पर टिके हुए एक साम्राज्य की समस्त शक्ति को अकेला ही चुनौती दे सके।”
अहिंसा को गाँधी जी कमजोरों का बल कहते थे। उनके अनुसार बुराई को मात्र
बुराई से न जीत कर अच्छाई से जीतना विशेष बात है।
असल
में गाँधी जी कुछ मामलों में हिंसा को अहिंसा के रूप में परिभाषित करते दिखे हैं।
वे स्त्रियों को शीलभंग होने की स्थिति में कायरतापूर्ण अथवा असहाय की दशा न
अपनाकर हिंसक उपायों के अवलंबन की छूट देते हैं। अहिंसा का जो रूप उनके द्वारा
तैयार किया गया था, साथ ही अपनाया गया था वह मात्र ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ था। वे
विचारों, इच्छाओं और जीवन मूल्यों में बदलाव लाने के लिए शक्ति का प्रयोग स्वीकार
नहीं करते थे। उनका मानना था कि मान्यता विचारों से बदलती है, बन्दूक से नहीं। वे
लिखते हैं-“मेरा यह पक्का विश्वास है कि खून-खराबा या धोखेबाज़ी से ली गई स्वाधीनता
वास्तव में स्वाधीनता ही नहीं है।” संभव हो कि गाँधी जी क्रांति के पक्ष में न रहे
हों, पर यह बात तो गाँधीवादी भी स्वीकारेंगे कि भारतीय स्वाधीनता मात्र गाँधी जी
की अहिंसा और सत्य की पृष्ठभूमि से नहीं उपजी, किसी न किसी रूप में इसमें शक्ति का
समावेश भी रहा है। महात्मा गाँधी की अहिंसा अथवा मुन्नाभाई की गांधीगीरी, हमें
भ्रष्टाचार से लड़वा सकती है, अपने अधिकारों से पहचान करा सकती है, सड़क-बिजली-पानी
की समस्या के खिलाफ खड़ा करवा सकती है, पर क्या आतंकवाद से लड़ा सकती है? दंगों-बमों
से जिता सकती है? स्वयं उन्हीं के शब्दों में-“ब्रिटिश हुकूमत को ख़तम करने के लिए
पिछले 30 सालों से अहिंसा का जो तरीका अपनाया गया,
कहीं उसी का तो नतीजा नहीं, क्या अब भी दुनिया के लिए आप का अहिंसा का सन्देश काम
आ सकता है? मैंने यहाँ सवाल पूछने वालों की भावनाओं का अपने शब्दों में सार दिया
है। इसके जवाब में मुझे अहिंसा का नहीं बल्कि अपना दीवालियापन कबूल करना चाहिए।
इसके पहले मैंने साफ़ कर दिया है कि पिछले तीस वर्षों से जिस अहिंसा का उपयोग किया
गया, वह कमजोरों की अहिंसा थी।.... आज की बदली परिस्थितियों में कमजोरों की अहिंसा
कुछ काम नहीं दे सकती। हिन्दुस्तान को बहादुरों की अहिंसा का अनुभव नहीं है।” गाँधी
जी का उक्त जवाब यह बताता है कि हिन्दुस्तान ने कभी बहादुरों की अहिंसा का अनुभव
नहीं किया, सिद्ध करता है कि अहिंसा के साथ भी कमजोरी और बहादुरी का साथ होता है। वे
कमजोरों की अहिंसा और बहादुरों की अहिंसा का स्वाद वे चख चुके थे। इसी कारण अहिंसा
को उन्होंने अपने जीवन का नियम बनाकर परिस्थितियों के अनुसार उसे कमजोरों और
बहादुरों की अहिंसा में बदलते रहते थे।
उनकी
इन्हीं नीतियों ने उन्हें हमेशा से आलोचनाओं के केंद्र में बनाए रखा। वर्तमान में
जब युवा वर्ग के सामने आदर्श व्यक्तित्व का अभाव है, उस समय गाँधी जी को आदर्श रूप
में खड़ा करने की कोशिशें उन्हीं के व्यक्तित्व के कारण असफल सिद्ध हो जाती हैं। आश्रम
में किसी युवक के ऊधम मचाने, झूठ बोलने, लड़ने-झगड़ने से परेशान होकर एक दिन स्वयं
गाँधी जी ने रूल उठा ली। इस पर वे कहते हैं कि उस युवक को मार कर मैंने अपनी आत्मा
का नहीं, बल्कि अपनी पशुता का ही दर्शन कराया था। इसे क्या गाँधी जी की हिंसा नहीं
कहा जायेगा? इसी तरह गाँधी जी द्वारा अपने अतिथियों के मल-मूत्र की सफाई हेतु अपनी
पत्नी कस्तूर बा से जबरदस्ती करना तथा क्रोध करना भी एक प्रकार की हिंसा की श्रेणी
में ही आता है। एक अन्य घटना के रूप में आश्रम का एक बछड़ा जो मरणासन्न स्थिति में होता
है, उसकी पीढ़ा और असहाय कष्ट को देखकर महात्मा गाँधी द्वारा उसे जहर का इंजेक्शन
देने का विचार किया जाता है। गाँधी जी को बछड़े को मारने का निर्णय लेना क्या इस
दृष्टि से अहिंसक कहा जायेगा कि यह एक प्राणी को कष्टों से मुक्ति दिलाना है। यदि
यही कृत्य आज सभी लोग अपनानें लगें तो क्या अहिंसा का सिद्धांत काम करता दिखेगा? गाँधी
जी के इस निर्णय की आलोचना हुई। इस बारे में भी गाँधी जी परिजनों की बीमारी की
सेवा संभव न हो पाने, जीने की आशा न होने, बेसुध और महादुखी होने की स्थिति में
उनके प्राण-हरण में लेशमात्र भी दोष नहीं मानते हैं। इस तरह की अहिंसा-हिंसा की
स्थितियाँ वर्तमान समाज में युवाओं को क्या और कैसी दिशा देंगी? ऐसे एक-दो ही उदाहरण
नहीं, अपितु महात्मा गाँधी के जीवन में अहिंसा की सोच
के पैदा होने से लेकर अंत समय तक जब भी ऐसी स्थिति पैदा हुई कि महात्मा गाँधी की अपनी
अघोषित सत्ता पर चोट प्रतीत हुई तो वे हिंसा का सहारा लेकर ही अपनी बात को मनवा सके।
आश्रम
में युवकों-युवतियों के मध्य एक युवक और एक-दो युवतियों के व्याभिचार की घटना के
सामने आने पर गाँधी जी द्वारा लड़कियों के बाल काटने का आदेश इस तर्क के साथ देना
कि काले बालों की खूबसूरती ही युवकों को आकर्षित कर गुमराह करती है, भी एक प्रकार
की हिंसा ही थी। दक्षिण अफ्रीका से आने के बाद भी गाँधी जी का क्रोध समय-असमय
सामने आता रहा और उनकी हिंसा के रूप में अहिंसा का प्रचार-प्रसार होता रहा। स्वराज्य
की लड़ाई में, सत्याग्रह में, चरखा कातने की अनिवार्यता को लेकर और अन्य बातों को
लेकर अक्सर गाँधी जी अपना रुख कड़ा कर लेते थे। वे अहिंसा पालन की असफलता को स्वयं
बताते हैं-“मेरे लिए अहिंसा महज एक दार्शनिक सिद्धांत ही नहीं है। यह तो मेरे जीवन
का नियम है, इसके बिना मैं जी ही नहीं सकता। मैं जानता हूँ कि बहुत बार मैं इसके
पालन में असफल रहता हूँ-कभी-कभी जाने में, बहुत बार अनजाने में।” उनके अहिंसात्मक
सिद्धांतों के लगातार समाज में रहने के बाद भी यह स्थिति बनी रही कि ‘गांधीगीरी’
के नाम से अहिंसा, सत्य का सञ्चालन किया जाने लगा। व्यवहार और सिद्धांत के अंतर ने
किसी भी स्थिति में गाँधी को युवाओं का वैसा आदर्श नहीं बनने दिया जैसा कि युवाओं
ने विवेकानंद के रूप में पाया। ‘विवेकानंद से टकराव की स्थिति से महात्मा गाँधी के
विचारों में कभी स्वामी विवेकानंद का जिक्र नहीं होता दिखा।’
ऐसे
में भारतीय चिंतन परम्परा की अहिंसा ‘गांधीगीरी’ के रूप में सामने आती है न कि
गाँधी-दर्शन अहिंसा के रूप में अथवा अहिंसा गाँधी-दर्शन के रूप में। युद्ध कोई
नहीं चाहता, शांति की बात सभी को अच्छी लगती है, गाँधी जी की अहिंसा का मंचीय
उदबोधन सुखद लगता है पर स्वयं को आदर्श अहिंसावादी सिद्ध न कर सकने के कारण व्यावहारिक
रूप में गाँधी जी की अहिंसा कमजोरों का अस्त्र नहीं बनती बल्कि उसे और कमजोर बनाती
रही है। समाज विकास, रक्षा, शांति के लिए अहिंसा के साथ-साथ क्रांतिकारी संघर्ष की
अनिवार्यता भी है। और ऐसा कम से कम ‘गाँधी-अहिंसा-दर्शन’ अथवा ‘गांधीगीरी’ से संभव
नहीं है।
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उक्त
आलेख लेखन में अहिंसा और सत्य (गाँधी जी) - प्रधान संपादक, रामनाथ सुमन, गाँधी
की अहिंसा, एक विश्लेषण (लेख) - डॉ० नागेश्वर प्रसाद, समाज विज्ञान शोध
पत्रिका, गाँधी दर्शन – प्रभात कुमार भट्टाचार्य, गाँधी और अहिंसा (लेख) - आशुतोष पाण्डेय और अर्चना त्रिपाठी,
समाज विज्ञान शोध पत्रिका, दि पोलिटिकल फिलोसोफी ऑफ़ महात्मा गाँधी - डॉ०
जी० एम० धवन, सिलेक्शन फ्रॉम गाँधी - निर्मल कुमार बोस, गाँधी जी का
जीवन, उन्हीं के शब्दों में - संपादक, कृष्ण कृपलानी, गाँधी बेनकाब - हंसराज
रहबर से सन्दर्भ लिए गए हैं.
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