कई वर्ष हो
गए थे जंगलों की,
बीहड़ों की धूल फांकते हुए. ग्रामीण अंचलों में जीवन गुजारते हुए. सीधा-साधा
सा जीवन, साधारण से शौक, सामान्य सा रहन-सहन.
न कभी कोई तड़क-भड़क पसंद की, न कभी अपनाई. अध्यापन कार्य से जुड़े
थे तो पूरी ईमानदारी, मर्यादा से अपने दायित्वों का, कार्य का निर्वहन करते रहे. अब अगली पीढ़ी को संवारने की भी महती जिम्मेवारी
उनके कंधों पर थी. अपनी संतति के भविष्य की चिंता उन्हें सताने लगी. खुद को बीहड़ों
से, ग्रामीण अंचल से निकाल कर किसी शहर, कस्बे के नजदीक लगाये जाने की जुगत में लग गए.
कई-कई महीनों
की दौड़-भाग के बाद काम बनता न दिखाई दिया. अपने स्तर पर तमाम प्रयासों के बाद अंततः
उन्होंने अपने विभाग की राजनीति के द्वार खटखटाए. आदर्शों, सिद्धांतों,
संस्कारों ने अपना रूप ज्यों का त्यों बनाये रखा. रिश्वत, दलाली, चंदा जैसी किसी भी स्वीकार्य-अस्वीकार्य स्थिति
से वे बचते रहे. बचते ही नहीं रहे बल्कि अपने स्तर पर अपने साथियों को रोकते भी रहे.
शिक्षा जगत को परम आदर्श मानकर उसमें मानक स्थापित करने के प्रयास करते रहे.
आखिरकार, उनका स्वभाव, उनकी प्रकृति, उनकी सदाचारिता उनके काम आई. उनके अधिकारियों के साथ उठने-बैठने वाले कमीशनबाज मित्रों ने उनके बारे में सकारात्मक सन्देश का प्रसार किया. बिना धन-उगाही साँस न लेने वाले अधिकारी ने अपने गैंग की बात पर विश्वास किया. बिना किसी रिश्वत, बिना किसी चंदे, बिना किसी कमीशन के वे मनमाफिक जगह खुद का स्थानांतरण करवाने में सफल रहे.
बिना जेब गर्म किये आगे न सरकने वाले तंत्र को यह कदम रास न आया. आखिरकार तंत्र प्रभावी भूमिका में दिखाई दिया और 'चोर चोरी से जाये, हेरा-फेरी से न जाये' वाले स्वरूप में नजर आया. ईश्वर के प्रति बारम्बार धन्यवाद देने वाले वे धार्मिक प्रवृत्ति के शिक्षक महाशय अब अपने अधिकारियों के घरों में नियमित निःशुल्क धार्मिक कृत्य करवाते देखे जाने लगे हैं.
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