04 सितंबर 2018

नोटा की उतावली से पहले


केंद्र सरकार के एक विधेयक पारित करते ही सवर्णों में मानो भूचाल आ गया. बहुतायत में सवर्ण एकजुट होकर केंद्र सरकार को सबक सिखाने के लिए जुट गए. अपनी ताकत को वे किसी प्रत्याशी के पक्ष में लाकर नहीं वरन नोटा बटन दबाकर दिखाना चाह रहे हैं. वे सवर्ण प्रत्याशियों को भी हराने के पक्ष में नहीं हैं जबकि यहाँ ध्यान रखना होगा कि संसद में किसी सवर्ण ने इस एक्ट का विरोध नहीं किया था. इसके बाद भी सवर्णों की नाराजगी सिर्फ भाजपा से ही है. यही वह बिंदु है जहाँ कि भाजपा विरोधी अपनी चाल में सफल हो गए दिखते हैं.


इसी बिंदु पर आकर नोटा प्रेमियों को आज से लगभग तीन दशक पहले जाना होगा जबकि पूरे देश में आरक्षण विरोधी प्रदर्शन, आन्दोलन चल रहा था. उन्हें अपने नोटा आंदोलन को धरती पर उतारने के पहले 1990-91 में चले आरक्षण विरोधी देशव्यापी आंदोलन को शिद्दत से याद कर लेना चाहिए क्योंकि तब का युवा आज से ज़्यादा आक्रोशित था. उस समय का आन्दोलन आज के आन्दोलन से ज़्यादा ज़मीनी आंदोलन था. उस समय के देशव्यापी आन्दोलन में किसी तरह का सोशल मीडिया सहयोग नहीं हुआ करता था. इसके बाद भी आन्दोलन पूर देश में हुआ. अनेक होनहार युवाओं ने आत्मदाह किया. अनेक युवाओं ने लाठियाँ खाईं और बहुतों को जेल भी भेजा गया मगर सरकार अपने कदम को पीछे लेने को तैयार न हुई. आरक्षण सरकारी मर्जी के हिसाब से लागू हुआ. उसके बाद हुए आम चुनाव में सरकार गिर गई फिर क्या हुआ उससे? आगे किसी और सरकार पर खतरा न हो, इस डर से आगे आने वाली सरकारों ने आरक्षण हटाया? नहीं न. ऐसे में वर्तमान में नोटा समर्थकों की यह कपोल कल्पना ही है कि उनके नोटा से आगे आने वाली सरकारें सवर्णों की ताकत को महसूस करेंगी. यदि किसी तरह से नोटा समर्थकों ने वर्तमान भाजपा सरकार को गिरा दिया तो क्या जो सरकार आएगी वो एक्ट हटा देगी?

देखा जाये तो सरकारों को इस तरह के आन्दोलनों से किसी तरह का फर्क नहीं पड़ता है. ये सोचना अपने आपमें भूल ही है कि नोटा की ताकत के बाद सवर्णों की पूछ राजनैतिक हलकों में बढ़ जाएगी. उनको सोचना होगा कि कांग्रेस अपनी हरकतों से 44 सीट पर आ गई तो उनके नेताओं के कौन से काम रुक गए? उनका कौन सा नुक़सान हो गया? ऐसा ही भाजपा के साथ होगा, यदि वह हारती है. एक बात और आरक्षण विरोधी आन्दोलनकारियों का उस समय एकमात्र विरोध था तो सरकार से. यहाँ आज की स्थिति ये है कि नोटा समर्थकों को एक तरफ सरकार से लड़ना है साथ ही उनसे भी लड़ना है जिनके लिए ये एक्ट लाया गया है. क्या लगता है कि जब सवर्ण एकजुट होकर नोटा के द्वारा सरकार को हराने की, एक्ट में संशोधन की माँग बुलंद करेगी तो दलित समर्थक शांति से बैठे रहेंगे? वे जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद शांति से नहीं बैठे तो यहाँ कैसे बैठ जायेंगे. ऐसे में वर्तमान आन्दोलनकारियों को दोतरफा लड़ाई लड़नी होगी और दोनों ही जगह बेमकसद युद्ध है. उनको ध्यान रखना चाहिए कि एक अकेले सरकार से लड़कर पूरे देश में आंदोलन करके आरक्षण कम या समाप्त तो हुआ नहीं. अब तो दो या दो से अधिक लोगों से लड़ना है, ऐसे में सकारात्मक परिणाम की आशा कहाँ से मिले? यदि वाकई नोटा समर्थक केंद्र सरकार से नाराज हैं और उसे सबक सिखाना चाहते हैं तो एकजुट होकर सभी जगह अपना उम्मीदवार उतारें. उसको जिताने की कोशिश करें. न भी जिता सकें तब भी उसके वोटों को भविष्य की रूपरेखा बनाने के काम में ला सकते हैं. केंद्र सरकार के वर्तमान विधेयक को भावी राजनैतिक रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए. (इस बारे में जल्द ही)

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