26 सितंबर 2018

बचपन को बचपन का आनंद लेने दें


ज्यों-ज्यों हम इंसानों ने विकास की राह पकड़ी, त्यों-त्यों रिश्तों की डोर को पीछे छोड़ने का उपक्रम बनाये रखा. हम आगे तो बढ़ते गये पर अपनी इंसानियत को बहुत पीछे छोड़ आये. हमने अपने अलावा किसी और पर विश्वास करना बन्द कर दिया है. अपने अतिरिक्त किसी दूसरे को अपने पास आने लायक नहीं समझा है. अपने परिवार का दायरा पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित कर दिया है. ऐसे में जहाँ समाज में आपसी भाईचारे में कमी आई है, वहीं रिश्तों में भी कड़वाहट पैदा हुई है. हम अपनी गलतियों को सुधारने के बजाय, अपने आपको सुधारने के बजाय, अपने रिश्तों को सुधारने के बजाय गलतियों का ठीकरा किसी और पर फोड़ते हैं. बच्चों के बाहर निकल कर न खेलने को पार्कों की कमी, खेल के मैदानों का न होना, आधुनिक तकनीकों का विकसित होते जाना, अविश्वास की स्थिति का पनपना, असुरक्षा का माहौल होना आदि बताते हैं.


इसके साथ-साथ आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में परिवार नाम की संस्था का बुरी तरह से बिखंडन हो चुका है, संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल कर अब नाभिकीय परिवार में आ चुके हैं. इन परिवारों में पति-पत्नी के अलावा सिर्फ एक बच्चा और शामिल हो जाता है. ऐसे में माता-पिता भी इस प्रयास में रहते हैं कि उनके बच्चे को किसी तरह से अकेलापन महसूस न हो, उसको किसी भी बात का बुरा न लगे, उसकी हर मांग को पूरा करना माता-पिता अपना फ़र्ज़ समझते हैं और इस सोच के चलते अधिकतर बच्चों की गलत मांगों को भी मान लिया जाता है. शुरूआती दौर में ये स्थिति बच्चे को बहलाने-फुसलाने की एक प्रक्रिया होती है किन्तु धीरे-धीरे यही प्रक्रिया बच्चे की घनघोर जिद बन जाती है और माता-पिता की समस्या के रूप में सामने आती है.

बच्चों की जिद पूरी करवाने के चक्कर में कई बार माता-पिता अपने बच्चे को सर्वगुण संपन्न मानने-समझने के अलावा उसके सामने इस बात को दर्शाने से भी नहीं चूकते हैं. ये बात और है कि प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चे सबसे अच्छे, सबसे बेहतर, सबसे समझदार लगते हैं किन्तु कई बार यही सोच उन्हें बच्चों के प्रति अंध-प्रेम का विकास करवाती है. उन्हें अपने बच्चे की चंद खूबियों के पीछे से होने वाली उसकी कुछ कमियां, गलतियाँ, जिद आदि नहीं दिखाई देती हैं. कालांतर में यही अंध-प्रेम बच्चों के मन में एक तरह की अहंकारी भावना विकसित कर देती है. इसके चलते कई मौकों पर यही बच्चे नकारात्मकता का प्रदर्शन करने लगते हैं. स्कूल में अपने साथ के बच्चों के साथ समायोजन न बना पाने की समस्या, खुद को सर्वोत्कृष्ट मानने की भावना, किसी भी रूप में अपनी जिद को पूरी ही करवाने की कुचेष्टा, पढ़ाई में एक तरह की अनावश्यक प्रतिद्वंद्विता बच्चों में दिखाई देने लगती है. यहाँ हमें याद रखना चाहिए कि बच्चों को भेदभाव हमने ही सिखाया है; बच्चों के अन्दर भय हमने ही पैदा किया है; उनके भीतर अविश्वास का जन्म हमने ही दिया है; तकनीक के सहारे कमरे में समय गुजार देना उन्हें हमने ही बताया है.

बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के लिए आवश्यक है कि उन पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए, उनके सर्वांगीण विकास के लिए उनको समयानुसार समस्त आवश्यक संसाधनों के संपर्क में लाया जाये, उनको सर्वोत्कृष्ट बनने के प्रति भी प्रेरित किया जाये किन्तु ये भी ध्यान रखा जाए कि इससे कहीं उस बच्चे में अकेलेपन का, अहंकारी भावना, आक्रोश का तो विकास नहीं हो रहा. बच्चे की उपलब्धियों पर उसकी घनघोर प्रशंसा हो किन्तु उसे उसकी गलतियों पर थोड़ा सा टोका भी जाये. उसको नवीनतम तकनीक के लाभ से परिचित करवाया जाये साथ ही उसके नुकसानों को भी बताया जाये. माता-पिता उसके चारों तरफ सुरक्षा घेरे के रूप में रहें किन्तु उसे स्वतंत्र रूप से अपने आपको भी समझने दें. नाभिकीय परिवारों के चलते माता-पिता भले ही खुद को अपने बच्चों के मित्र के रूप में स्थापित-परिभाषित करें किन्तु उसे अपनी आयुवर्ग के बच्चों के साथ खेलने-कूदने के पर्याप्त अवसर भी उपलब्ध करवाएं. इसी तरह के और भी छोटे-छोटे कदम हैं, प्रयास हैं जिनके द्वारा कोई भी माता-पिता अपने बच्चों के सकारात्मक विकास में मददगार हो सकते हैं और बच्चे भी सार्थक संरक्षण के द्वारा सर्वांगीण विकास की राह पर हँसते-खेलते चल सकते हैं.

हमें अपने बच्चों के बचपन का स्मरण करते हुए इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि यह अवस्था इंसान के सम्पूर्ण जीवनकाल की वह अवस्था है जिसे वह ताउम्र नहीं भूल पाता है. इस अवस्था की मस्ती, मासूमियत, शरारतें, हुल्लड़ आदि-आदि अपने आपमें एक अजूबा होते हैं और हमने अपने क्षणिक दम्भ के लिए, क्षणिक अभिमान के लिए इन सबसे अपने ही बच्चों को वंचित कर रखा है. अपने इस दम्भ, अभिमान को अपने लिए न सही, अपने बच्चों के लिए त्यागें और समाज में वही माहौल बनायें जिसमें हमारे बच्चे बिना किसी डर के, बिना किसी अविश्वास के आपस में शोर-शराबा करते हुए अपने बचपन का आनन्द ले सकें. जो भी यह कहता हो कि वर्तमान दौर में ऐसा हो पाना मुश्किल है, असम्भव है वह सब कुछ छोड़कर एक बार हमारे मुहल्ले की गली में आ जाये. वह स्वयं का भूलकर वहाँ अपना बचपन महसूस करके प्रफुल्लित हो उठेगा.



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