01 अगस्त 2018

निर्लज्ज हँसी में छिपते अपराध


जब तक सत्ता के गलियारों से आपराधिक लोगों को संरक्षण मिलता रहेगा, तब तक ये निर्लज्जता बनी रहेगी. संरक्षणगृहों से इस तरह के कुकृत्यों का निकलना कोई पहली बार नहीं हुआ है. इससे पहले भी कई काण्ड इस तरह से सामने आते रहे हैं. हरेक घटना में किसी न किसी रसूखदार का, किसी न किसी सत्ताधारी का संरक्षण दिखता रहा है. हर बार सत्ता की तरफ से कठोर से कठोर कार्यवाही किये जाने की बात कही जाती है, कुश दोषियों की गिरफ़्तारी भी हो जाती है, जाँच करवाए जाने की लीपापोती कर दी जाती है और उसके बाद सबकुछ भूल-भुला लिया जाता है. इस तरह के कृत्य कुछ दिन चर्चा में रहते हैं फिर जनमानस की खोपड़ी से ग़ायब हो जाते हैं. निठारी कांड कितनों को याद है? कितनों को उसके दोषी की सज़ा याद है? कुछ दिन बाद ऐसा ही कुछ यहाँ होगा.


यही कारण है कि गिरफ्तार होने के बाद भी मुजफ्फरपुर का दोषी खुलकर हँस रहा है. समझ नहीं आता कि वह किस पर हँस रहा है? इस व्यवस्था पर हँस रहा है, इस कानून पर हँस रहा है, सत्ता में बैठे लोगों पर हँस रहा है, जनता पर हँस रहा है, उसके खिलाफ कार्यवाही करवाने वालों पर हँस रहा है. वह किसी पर भी हँस रहा हो मगर देखा जाये तो एक वह अकेला ही नहीं हँस रहा है. समाज में जहाँ-जहाँ भी व्यवस्था की खिल्ली उड़ाई गई है वहां-वहां संलिप्त सभी लोग हँस ही रहे हैं. ऐसे लोग व्यवस्था पर हँसते हैं, कानून पर हँसते हैं, अदालत पर हँसते हैं, न्याय पर हँसते हैं, सामाजिक रूप से सक्रिय रहने वालों पर हँसते हैं, शोषितों पर हँसते हैं, न्याय मांगने वालों पर हँसते हैं, सरकार पर हँसते हैं, विपक्ष पर हँसते हैं. इनके हँसने में सिर्फ हँसी नहीं है वरन व्यंग्य है, मखौल है. ये जानते हैं कि कानून इनका कुछ न बिगाड़ सकेगा, सिस्टम इनके साथ कोई कठोर कार्यवाही नहीं कर सकेगा. इनको भली-भांति मालूम है कि कहाँ से कैसे बचना है. ये जानते हैं कि किसके द्वारा सजा से बचा जाना है. इनके हँसने के पीछे एक पूरा का पूरा अतीत है जो इनके साथ ठहाके लगाता है. इनके साथ वे रोता, सिसियाता अतीत है जो व्यवस्था की मार सहता हुआ जिन्दा है मगर लाश जैसा है.

व्यवस्था को, सत्ता को, विपक्ष को, मीडिया को, न्याय को, कानून को किसी भी कीमत पर खरीदने का दम रखने का अहंकार पाले ये लोग ही समाज में विद्रूपता फैलाये रहते हैं. कभी संरक्षण के नाम पर व्याभिचार, कभी शिक्षा के नाम पर व्याभिचार, कभी व्यापार के नाम पर यौन-अपराध, कभी राजनीति के नाम पर जिस्मफरोशी, कभी रोजगार के नाम पर कुकर्म. सभी पर पड़े परदे उठते भी हैं मगर सामने आते चेहरों पर खौफ नहीं दिखता है. खाकी वर्दी के साथ अदालत की तरफ जाते, न्याय के कटघरे की तरफ जाते इन दोषियों की चाल में अहंकार टपकता है. लगता नहीं कि किसी दोषी को पुलिस पकड़ कर ले जा रही है वरन ऐसा प्रतीत होता है मानो किसी विशिष्ट के स्वागत की तैयारी हो रही हो. निर्लज्ज रूप से ऐसे लोग हनते हुए सम्पूर्ण समाज का, शोषितों का मजाक उड़ाते हैं. इस हँसी के पीछे से निकलता उनका विश्वास सिद्ध करता है कि ये लोग महज मोहरे हैं, असल खिलाड़ी कोई और है जो इसके बाद किसी और निर्लज्ज मोहरे को सामने लाकर खेल खेलेगा. वक्त की मार के चलते कभी वह मोहरा भी पिटा तो वह भी इसी तरह की निर्लज्ज हँसी के द्वारा सबका मखौल उड़ाएगा, सबका मजाक बनाएगा.

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