दुःख को लेकर एक पोस्ट लिखी थी, दो-चार दिन पहले. उस पोस्ट को लेकर भी लोगों में सवाल-जवाब की स्थिति बनी है. संशय की स्थिति बनी है. पता नहीं क्यों समाज में लोग अपने दुःख को ही सबके दुखों से अधिक बड़ा साबित करने पर लगे रहते हैं? समझ नहीं आता है कि सार्वजनिक रूप से क्यों लोग अपने दुःख को बढ़ा-चढ़ा कर सुना जाना पसंद करते हैं? यही समझ नहीं आता कि दुःख का मापन कैसे हो? कैसे किसी का दुःख नापकर बताया जाये कि इसका दुःख उसके दुःख से कम है? खुशियों को तलाशते-तलाशते इन्सान कब दुखों की चाह करने लगा समझ नहीं आया. उसके दुःख को बड़ा स्वीकारते हुए यदि उससे कहा जाये कि तुम ज़िन्दगी भर दुखी ही रहो, इस दुःख के बदले अपनी ख़ुशी दे दो तो वह इसके लिए कतई राजी नहीं होगा. ऐसे में वह किस कारण अपे दुःख को औरों के दुःख से बड़ा बताना चाह रहा है?
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