आज,
4 जुलाई, स्वामी विवेकानन्द की पुण्यतिथि. वे अपने ओजस्वी और
सारगर्भित व्याख्यानों के लिए समूचे विश्व में प्रसिद्द हैं. उन्होंने अपने अल्प
जीवन में जिस तरह का विराट स्वरूप प्राप्त कर लिया था, वैसा विरले ही कर पाते हैं.
उनका आत्मविश्वास, उनकी संयमित जीवनशैली के कारण ही यह सब संभव हो सका था. यही
कारण है कि उन्होंने अंतिम दिन भी अपनी दिनचर्या को बदला नहीं. उनके शिष्यों के अनुसार
उन्होंने अन्तिम दिन (4 जुलाई 1902) को भी प्रात: ध्यान किया और ध्यानावस्था
में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली. बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की
चिता पर उनको मुखाग्नि दी गई. इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का
भी अन्तिम संस्कार किया गया था. स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी सन् 1863 को कलकत्ता
के एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था. नरेंद्र पर
अपने माता-पिता के धार्मिक, प्रगतिशील तथा तर्कसंगत व्यक्तित्व
का प्रभाव रहा, जिसने उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकार प्रदान किया.
वे
25 वर्ष की अवस्था में ही संन्यास धारण करके पैदल ही पूरे भारतवर्ष
की यात्रा पर निकल गए. सन 1893 में शिकागो (अमरीका) में हो
रही विश्व धर्म परिषद् में वे भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे. यूरोप-अमेरिका
के लोग पराधीन भारतवासियों को हेय दृष्टि से देखते थे. उन लोगों ने प्रयास किया कि
स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का अवसर न मिले. बाद में एक अमेरिकन
प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें बहुत कम समय दिया गया और इसी अल्प समय का सदुपयोग
करते हुए उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी विद्वानों को चकित कर दिया. इसके बाद तो पूरा अमेरिका
उनका जबरदस्त प्रशंसक बन गया और वहाँ उनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया. उनकी वक्तृत्व-शैली
तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम
दिया था. स्वामी विवेकानन्द का भारतीय दर्शन की शक्ति पर दृढ़ विश्वास था. उनका
मानना था कि आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा.
स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं को गरीबों का सेवक माना और देश के गौरव को देश-देशान्तरों
में उज्ज्वल करने का सदा प्रयत्न किया.
महज
39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये
वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे. उनके दर्शन,
कार्यों, व्याख्यानों को देखते हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था कि
यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये. उनमें आप सब कुछ सकारात्मक
ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं.
रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था कि उनके द्वितीय होने की कल्पना
करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे. हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था. वे ईश्वर
के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी. हिमालय प्रदेश
में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा
था - ‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति
के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो.
उनका
दर्शन नितांत व्यावहारिक था. यही कारण था कि उन्होंने कहा था कि मुझे बहुत से युवा
संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें. हिन्दू
धर्म, दर्शन, आध्यात्म को मानने वाले विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ
थे. इसी के चलते उन्होंने विद्रोही बयान कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे,
दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में
स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये, भी दिया था. आज ऐसे विचार देना तो दूर, ऐसा सोच पाना खुद सरकार के लिए
आसान नहीं है. देखा जाये तो यह स्वामी विवेकानन्द का अपने देश की धरोहर के लिये दम्भ
या बड़बोलापन नहीं था वरन यह एक वेदान्ती साधु की भारतीय सभ्यता और संस्कृति की तटस्थ,
वस्तुपरक और मूल्यगत आलोचना थी.
आज
उनकी पुण्यतिथि पर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनके जीवन के अन्तिम दिन शुक्ल
यजुर्वेद की व्याख्या करते समय उनके द्वारा उच्चारित कथन स्मरण हो आता है कि एक
और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस
विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है. यह कहीं से भी अतिश्योक्ति
नहीं है क्योंकि उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक
चिंतन किया था. उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ. अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब
तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये, में इसकी प्रतिध्वनि स्पष्ट
रूप से सुनाई भी देती है.
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