05 जुलाई 2018

अपराधियों के साथ हम सब भी दोषी हैं


हम सब नागरिक बहुत परेशान हैं. समाज में रोज ही बलात्कार की खबरें आ रही हैं. अब तो बच्चियों के साथ बलात्कार की खबरें आने लगी हैं. इन खबरों को पढ़कर, सोशल मीडिया पर देखकर खून खौल जाता है मगर बस उतनी देर ही खौलता रहता है जितनी देर तक हम सब अपना स्टेटस, कोई फोटो सोशल मीडिया पर शेयर नहीं कर लेते. जैसे ही ये सब किया, दो-चार-दस लाइक, कमेंट मिले बस खून का उबाल ठंडा पड़ जाता है. कुछ लोगों का खून ज्वालामुखी की तरह खौलता है, लावा फेंकता है पर तब तक ही ऐसा होता है जब तक कि वे मोमबत्ती न जला लें, किसी जुलूस में शामिल न हो लें, उसकी सेल्फी खींच कर सोशल मीडिया पर शेयर न कर लें. इतना करने के बाद खून खौलना बंद हो जाता है और खून की रवानी दूसरी दिशा में मुड़ जाती है. अब खून के खौलाव के बाद बने बादल दिमाग में चढ़ जाते हैं और फिर वे किस एक महिला, किसी एक बच्ची को नहीं देखते वरन सम्पूर्ण समाज का प्रतिनिधित्व करने लगते हैं. दिमाग में चढ़े खून के बादल समग्रता में देखने लगते हैं. बस उनके बरसने की देर होती है. आखिर बरसने के लिए भी कोई जगह चाहिए, कोई अवसर चाहिए. इसी अवसर, इसी जगह के मिलते ही दिमाग में चढ़े बादल वैचारिकी के साथ बरस पड़ते हैं. सामाजिक दर्शन के साथ बरस पड़ते हैं.


इस समग्रता में समूचा समाज ख़राब लगने लगता है. समाज रहने लायक नहीं लगता. ये देश रहने लायक नहीं लगता. कुछ लोगों को देश में आपातकाल दिखाई देने लगता है. कुछ लोगों के लिए देश सांप्रदायिक हो जाता है. कुछ समाज में अराजकता का बोलबाला देखते हैं. कुछ हिंसात्मक समाज का स्वरूप देखने लगते हैं. इतना सब कुछ होने के बाद भी ऐसे लोग आराम से जीवन-यापन कर रहे होते हैं. इतनी भयानक स्थिति होने के बाद भी ऐसी सोच वालों का परिवार सुखद रूप में समाज के बीच रह रहा होता है. ऐसी सोच का प्रसार करने वाले ही खुलेआम मॉल में, बाजार में घूमते दिखाई देते हैं. न उनके साथ कोई छेड़छाड़ होती है, न उनका कोई मर्डर करता है, न उनके साथ कोई चोरी-चकारी होती है, न उनके साथ कोई हिंसा होती है, न उनके साथ कोई अराजकता होती है. इतने के बाद भी उनको समाज रहने लायक नहीं लगता है. खबरों में देखने-पढ़ने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाने के बाद चैन की नींद सोने वालों के लिए ही ये समाज रहने लायक नहीं रहता है. ऐसे लोग ही इसका दुष्प्रचार करते नजर आते हैं. ऐसे विचारों का प्रसार करने वालों से पूछना चाहिए कि समाज में कितनी बार इनके परिवार को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा कि जिससे उन्हें लगा हो कि समाज अब रहने लायक नहीं? ऐसे लोगों से जानना चाहिए कि समाज में विपत्ति में फँसे कितने लोगों की इन्होंने मदद की है? इनकी राय इस पर भी प्राप्त करनी चाहिए कि जमीनी रूप से समाज को सुधारने के लिए इन्होंने कितना काम किया?

यहाँ यह कहने का अर्थ कतई नहीं है कि समाज में स्थितियाँ बेहतर हैं, सुखद हैं. यदि ऐसा होता तो हम सब रोज ही बलात्कार जैसी घटनाओं से दो-चार नहीं हो रहे होते. यदि समाज में सबकुछ सुखद ही होता तो बच्चियाँ दुर्दांत अपराधियों की हवस का शिकार नहीं बन रही होती. जिस तरह की आपराधिक घटनाएँ दिख रही हैं, उसके पीछे इसी तरह की मानसिकता के लोग भी जिम्मेवार हैं. अपराधी की मनोवृत्ति अपराध करने की होती है मगर उन व्यक्तियों की मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए जो अपने आपको समाज का जिम्मेवार नागरिक मानते हैं? क्या उनका दायित्व नहीं बनता कि समाज में लगातार आ रही विसंगतियों के खिलाफ खड़े हों? क्या उनका फ़र्ज़ नहीं बनता कि आये दिन आँखों के सामने होने वाली आपराधिक घटनाओं का विरोध उनके द्वारा भी हो? ऐसे लोगों की स्थिति यह है कि विरोध तो दूर मौका पड़ने पर वे यह तक स्वीकारने को तैयार नहीं होते कि वारदात के समय वे वहां मौजूद थे. ऐसे में अपराधियों का हौसला तो बढ़ना ही है. यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो आप खुद महसूस करेंगे कि सड़क चलते हर इन्सान हत्या नहीं कर रहा है. सड़क चलता हर व्यक्ति बलात्कार नहीं कर रहा है. सड़क चलता हर इन्सान किसी का सामान नहीं चुरा रहा है. असल में ऐसा करने वाले अवसर की, जगह की, स्थिति की प्रतीक्षा में रहते हैं.

अपराधियों को ऐसी स्थिति, ऐसा अवसर वही लोग उपलब्ध कराते हैं जो इस समाज को अब हिंसात्मक, आपराधिक मान रहे हैं. जमीनी रूप में सजगता दिखाने के बजाय आलोचना करना सबसे ज्यादा आसान होता है. इस कारण से समाज का कथित बुद्धिजीवी वर्ग खुद को कमरे में बंद करके बैठा रहता है और अपराधियों को अवसर उपलब्ध करवाता रहता है. सत्य यह है कि अपराधी जबरदस्त तरीके से डरपोक किस्म का होता है और यही कारण है कि वे एक समूह में चलते हैं. रात के अंधियारे में चलते हैं. कानून से बचते फिरते हैं. इसके साथ-साथ यह और भी बड़ा सत्य है कि खुद को जिम्मेवार मानने वाला, बुद्धिजीवी मानने वाला नागरिक इनसे भी बड़ा डरपोक होता है. उसके एक इसी डरपोकपने के कारण अपराधियों के हौसले बुलंद हैं और इसी कारण समाज में रोज ही आपराधिक घटनाएँ हो रही हैं.

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