26 जून 2018

आपातकाल की आशंका का सच


इंदिरा गाँधी द्वारा लगाया गया आपातकाल प्रतिवर्ष जून में सबको याद आ जाता है. वर्तमान में आपातकाल का विरोध भाजपा द्वारा करने के कारण कांग्रेस सहित अन्य दल किसी न किसी रूप में उसकी वकालत करते दिख रहे हैं. ऐसे समय में भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का बयान मुझे इतना भरोसा नहीं है कि फिर से आपातकाल नहीं थोपा जा सकतायाद आता है. इस बयान के द्वारा आडवाणी ने जहाँ एक तरफ सरकार को असहज किया था वहीं दूसरी तरफ विपक्षी दलों को आह्लाद करने का अवसर दिया था. आज भी गैर-भाजपाई दल और तमाम व्यक्ति देश में आपातकाल जैसी स्थिति बनी होने की बात करते हैं.यहाँ महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि देश में जब 1975 में आपातकाल लगाया था उस समय की स्थितियों और आज की स्थितियों में क्या कोई साम्य है? यदि इंदिरा गाँधी के आपातकाल की स्थितियों पर दृष्टि डालें तो उसके पीछे उनकी स्वार्थपरक राजनैतिक सोच दिखाई देती है. इंदिरा सरकार के न्यायपालिका से टकराव ने आपातकाल की स्थिति बनानी शुरु कर दी थी.


इंदिरा गाँधी के सत्ता में आने के ठीक पहले 27 फरवरी 1967 को सुप्रीम कोर्ट का एक बड़ा फैसला आया, जिसमें चीफ जस्टिस सुब्बा राव ने अपने फैसले में निर्धारित किया कि संसद में दो-तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो समाप्त किया जा सकता है और न ही सीमित किया जा सकता है. इसके अलावा इंदिरा गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट के दो अन्य फैसलों को लोकसभा चुनाव जल्दी कराने का आधार बना लिया. इनमें पहला फैसला बैंक राष्ट्रीयकरण मामले से सम्बंधित और दूसरा फैसला अध्यादेश के जरिये प्रीवी पर्स को समाप्त करने की कोशिश के बारे में था. इस दूसरे फैसले से, जो खारिज कर दिया गया था, बौखलाई इंदिरा ने लोकसभा भंग कर चुनाव करवाने का फैसला किया और जीतकर आने के बाद संविधान संशोधन के जरिये प्रीवी पर्स खत्म कर दिया. इंदिरा गांधी जहाँ एक तरफ कानूनी लड़ाई लड़ रही थीं वहीं विपक्षी पार्टियों के साथ भी लड़ रही थी. महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों ने इंदिरा सरकार को घेरना शुरू कर दिया था; मुद्रास्फीति रिकॉर्ड बीस फीसदी तक पहुँच चुकी थी; गुजरात, बिहार में छात्रों के आन्दोलन तीव्रता पकड़ रहे थे; तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर द्वारा छात्रों पर गोलियां चलवा दी गई थी; जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का आवाहन कर ही दिया था; आम आदमी, श्रमिक वर्ग, सरकारी कर्मचारियों में असंतोष बढ़ रहा था, ये सब सरकार के लिए खतरे की घंटी थी. इनके चलते इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने का बहाना मिल गया था. ऐसी कोई भी स्थिति वर्तमान में दिख नहीं रही है और न ही इसकी आहट समझ आती है. न तो उनके खिलाफ आम आदमी का असंतोष है, न ही कर्मचारियों का और न ही राजनैतिक दलों की लामबंदी जैसा कुछ है. जो कुछ हल्का-फुल्का सा विरोध है, उसके आधार पर आपातकाल की आशंका जताई नहीं जा सकती. ऐसे में ये सोचने पर विवश हुआ जाता है कि एक ऐसे व्यक्ति ने, जो स्वयं इंदिरा गाँधी द्वारा लगाये गए आपातकाल में उन्नीस माह जेल में कैद रहा हो, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आपातकाल की आशंका राजनैतिक दल, मीडिया किस कारण से  व्यक्त कर रहे हैं?

आज भाजपा-विरोधी लोगों का कहना है कि इस पीढ़ी के लोगों में लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता कम हो रही है. यदि पूर्वाग्रहरहित होकर वर्तमान परिस्थितियों पर विचार किया जाये तो इन आशंका को महज केंद्र सरकार के सन्दर्भ में अथवा मोदी के सन्दर्भ में न देखकर सम्पूर्ण राजनैतिक परिवेश के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. विगत वर्षों में राजनीति को धन-बल, बाहु-बल बढ़ाने वाला मंच मान लिया गया है. इसके माध्यम से अकूत संपत्ति पैदा करने, बड़े-बड़े ठेके लेने, माफियाराज स्थापित करने, करोड़ों-अरबों के घोटाले करने की तृष्णा लेकर अनेक लोगों का आना-जाना हुआ. इसके चलते व्यापक रूप से देश में भ्रष्टाचार का, घोटालों का बोलबाला विगत के दशक में देखने को मिला. लोकतान्त्रिक व्यवस्था को, संसद को, संविधान को दरकिनार कर राजनैतिक दलों द्वारा, राजनीतिज्ञों द्वारा स्वार्थमयी राजनीति की स्थापना सी कर ली गई. इसके चलते आम जनता को एकदम से विस्मृत सा कर चहुँ ओर पुरजोर रूप में राजनीति को माफियाओं का, गुंडों का, दलालों का, हत्यारों, डकैतों का अखाड़ा सा साबित करने के कुत्सित प्रयास किये जाने लगे हैं. दलबदल की निर्लज्जता, स्वार्थमयी सोच के चलते महाविलय जैसी क्षणिक, चुनावपूर्व स्थितियां, सत्ता पाने के लिए निर्दलीय व्यक्ति तक का मुख्यमंत्री बन जाना आदि से समझा जा सकता है कि राजनीति के गलियारे में लोकतंत्र का, लोकतान्त्रिक शक्तियों का, संविधान का लगातार निरादर होने लगा है. अकसर लोगों द्वारा सैनिकों को लेकर सवाल किये जाते हैं कि नेताओं, मंत्रियों के बेटे सेना में क्यों नहीं जाते, सीमा पर गोली क्यों नहीं खाते, ठीक उसी तरह से प्रश्न उठता है कि नेताओं के अलावा कितने लोग हैं जो अपने बेटे-बेटियों को कैरियर बनाने की दृष्टि से राजनीति में जाने की प्रेरणा दे रहे हैं? सबकी निगाह में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाखों-करोड़ों रुपये के पैकेज घूमते हैं, विदेश में पूरी भौतिकता, सुख-सुविधा के साथ नौकरी करने के ख्वाब तैरते हैं. निसंदेह ऐसे में राजनीति में स्वार्थमयी सोच के लोगों का समावेश होना लाजिमी है और इनके चलते लोकतंत्र कितना सुरक्षित रह पायेगा, समझा जा सकता है. यदि ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता का सञ्चालन होगा तो भले आज न सही, आने वाले वर्षों में लोकतान्त्रिक क्षरण और बुरी तरह से होने की आशंका है.

देखा जाये तो आन्दोलन के पार्श्व से उभरे राजनैतिक दल ने, भाजपा-विरोध के लिए बने गठबंधन ने एक तरह की अराजकता को जन्म दे दिया है. युवाओं के सामने संसद, संविधान, लोकतंत्र आदि का मखौल बनाकर एक तरफ व्यवस्था परिवर्तन के लिए आन्दोलन किया जाता है वहीं दूसरी तरफ लोगों को मुफ्त का लालच देकर उनके वोटों को प्राप्त किया जाता है, सरकार पर अनावश्यक दबाव डाला जाता है. जिस तरह से युवा-शक्ति को बरगलाने का काम किया गया और उसके बाद ईमानदारी का चोला पहनकर फर्जीवाड़ा करने वाले, हिंसा करने वाले, अपराध करने वाले यहाँ भी सत्तासीन होते दिखे तो आन्दोलनों का वर्तमान मकसद समझ आना चाहिए. किसी समय आंदोलनों का उद्देश्य जनहितकारी कार्यों की पार्टी के लिए सरकार पर दबाव डालना होता था किन्तु आज स्वार्थमयी सोच के लिए रेल पटरियों को उखाड़ना, सार्वजनिक संपत्ति में आग लगा देना, हिंसा पर उतारू हो जाना किसी भी रूप में स्वस्थ लोकतान्त्रिक व्यवस्था को स्थापित नहीं करता है. ऐसे में देखना चाहिए कि क्या ये स्थितियाँ आपातकाल में संभव हैं? जिस तरह से प्रधानमंत्री को हत्यारा सहित और भी न जाने कितने जघन्य विभूषणों से पुकारा जाता है, विदेश के चैनल में बैठकर देश के प्रधानमंत्री को हटाने की बात कही जाती है, आतंकी गुट द्वारा देश के एक राजनैतिक दल के विचारों का समर्थन किया जाता हो वहां सोचना चाहिए कि आपातकाल में अभिव्यक्ति की इतनी स्वतंत्रता हासिल हो सकती है?


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