25 जून, भारतीय सन्दर्भों
में, भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में यह मात्र एक तारीख भर नहीं है. इस तारीख का
अपना ही एक इतिहास है, जिसे आज काले अध्याय के रूप में देखा-जाना जाता है. 25
जून 1975 की रात्रि को तत्कालीन प्रधानमंत्री
इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की नींव रखी. अगले दिन सुबह-सुबह रेडियो के द्वारा देश में
आपातकाल की घोषणा हो गई. सुबह छह बजे इंदिरा गाँधी ने सभी मंत्रियों को बैठक के लिए
बुलाया. बैठक के तुरंत बाद ही इंदिरा गाँधी ने रेडियो पर अपने भाषण के द्वारा
आपातकाल लगाये जाने की जानकारी देश को दी. उस समय फ़ख़रुद्दीन अली अहमद देश के राष्ट्रपति
थे. कैबिनेट की बैठक में आपातकाल के प्रस्ताव को स्वीकृति मिल चुकी थी. उस पर अंतिम
मुहर राष्ट्रपति को लगानी थी. इंदिरा और सिद्धार्थ शंकर ने राष्ट्रपति भवन पहुँच
राष्ट्रपति को देश के हालात के बारे में अवगत कराया और आपातकाल की उपयोगिता बताई.
इसके बाद राष्ट्रपति ने इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी. यह अपने आपमें विचित्र स्थिति है कि आपातकाल
की घोषणा रेडियो पर पहले कर दी गई बाद में उस पर राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए थे. आपातकाल
के बाद देश भर में गिरफ़्तारियों का दौर शुरू हुआ. खास बात यह रही कि महज तीन नेताओं
की गिरफ़्तारी की इजाजत नहीं दी गई थी. ये तीन नेता तमिलनाडु के कामराज, बिहार के जयप्रकाश नारायण के साथी गंगासरन सिन्हा और पुणे के एसएम जोशी
थे.
आपातकाल लगाये जाने के पीछे उच्च
न्यायालय, इलाहाबाद का एक आदेश था. 12 जून 1975 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश
जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने
का प्रतिबंध लगा दिया. उन पर वोटरों को घूस देना, सरकारी मशनरी
का गलत इस्तेमाल करने जैसे चौदह आरोप लगे थे. यह मामला राज नारायण ने 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी से हारने के बाद दर्ज कराया था. इस फैसले
के बाद इंदिरा गाँधी ने इस्तीफा देने से इन्कार करते हुए फैसले को उच्चतम न्यायालय
में चुनौती दी. उच्चतम न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के इस आदेश को बरकरार रखा. यह
आदेश 24 जून 1975 को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने दिया. इसके बाद इंदिरा
गाँधी ने आपातकाल का सहारा लेकर राजनैतिक विरोधियों को नियंत्रण में लेने का
प्रयास किया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादस्पद काल था. आपातकाल में चुनाव
स्थगित हो गए थे. नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई. इंदिरा गांधी के राजनीतिक
विरोधियों को कैद कर लिया गया. प्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया था. उनके बेटे संजय
गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया. जयप्रकाश नारायण ने
इसे भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि कहा था.
आपातकाल लागू करने के बाद इंदिरा गाँधी
के राजनैतिक विरोधी और अधिक सक्रिय हो गए. विरोध की लगातार बढ़ती तीव्रता के कारण लगभग
दो साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश
कर दी. चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ. इंदिरा
गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं. संसद में कांग्रेस 153 पर सिमट गई और केंद्र
में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ. जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई
और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली. नई
सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए शाह आयोग का गठन किया. अपने
अंदरूनी मतभेदों के कारण 1979 में जनता सरकार गिर गई. उप प्रधानमंत्री
चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई लेकिन यह सरकार सिर्फ़ पाँच महीने
तक ही चल सकी. इस सरकार में चौधरी चरण सिंह एक दिन के लिए भी संसद न जा सके. उनके
नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया.
वैसे देखा जाये तो देश में आंतरिक अशांति
का खतरा होने पर, किसी बाहरी देश के आक्रमण होने पर अथवा वित्तीय संकट की स्थिति दिखाई देने
पर आपातकाल लगाया जा सकता है. देश ने 1962 में चीन के साथ एवं
1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान आपातकाल का सहा था.
25 जून 1975 की मध्यरात्रि से 21
मार्च 1977 के बीच का आपातकाल विशुद्ध
राजनैतिक हथकंडा था, जिसे आंतरिक अशांति के नाम पर अनुच्छेद 352 के अंतर्गत लगाया गया था.
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