अंततः
कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में येदियुरप्पा ने शपथ ग्रहण कर ली है. उनके शपथ लेने
के बाद भी ये अनिश्चितता बनी हुई है कि क्या वे सदन में बहुमत सिद्ध कर सकेंगे?
चुनाव परिणामों के बाद की अंतिम स्थिति में भाजपा के पास बहुमत के आँकड़े
से कम सीटें रहीं. भाजपा जहाँ खुद को सबसे बड़े दल के रूप में देखने के बाद पहले सरकार
बनाने के रूप में स्वीकारोक्ति चाह रही थी वहीं दोनों विपक्षी दलों ने अपनी संयुक्त
सीटों की संख्या के आधार पर सरकार पहले बनाने का दावा पेश किया. ऐसी विषम स्थिति में
गेंद राज्यपाल के पाले में आ गई थी. तमाम ऊहापोह के बाद कर्नाटक के राज्यपाल ने भाजपा
को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया. कांग्रेस जैसे पहले से ही तैयार बैठी थी, राज्यपाल
का फैसला भाजपा के पक्ष में आते ही उसने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. देर रात
तक चली तीन सदस्यीय पीठ ने येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण पर रोक लगाने से इंकार करते हुए
शपथ ग्रहण का रास्ता खोल दिया.
बड़े
दल के रूप में उभर कर आने के कारण राज्यपाल द्वारा भाजपा को पहले सरकार बनाने का आमंत्रण
देना क्या वाकई संवैधानिक त्रुटि है? क्या वाकई ये लोकतान्त्रिक
मूल्यों की हत्या है? क्या वास्तव में राज्यपाल के इस कदम को
नैतिकता की हार कहा जायेगा? ऐसे और भी प्रश्न हैं जो अब भारतीय
राजनैतिक पटल पर उभरने लगे हैं. यहाँ संविधान विशेषज्ञों की अपनी-अपनी राय है और लगभग
सभी की राय में किसी भी राज्य में राज्यपाल द्वारा सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का आमंत्रण
देना गलत नहीं है. ऐसा उस स्थिति में गलत कहा जा सकता है जबकि चुनाव पूर्व गठबंधन वाले
दलों की संयुक्त सीटों की अधिक संख्या होने के बाद भी उन्हें सरकार बनाने के लिए न्यौता
नहीं दिया जाता है. येदियुरप्पा को आमंत्रित करने के साथ ही चिर-परिचित भाजपा-विरोधी
माहौल बनता दिखाई देने लगा.
इस
विरोध के बीच कई घटनाओं, स्थितियों पर ध्यान देने की आवश्यकता
है. कर्नाटक विधानसभा चुनाव की घोषणा होने के पहले से ही बहुत से विश्लेषकों ने लगभग
साबित कर दिया था कि वहां भाजपा को लाभ मिलने वाला नहीं है. असल में 2014 से लेकर अभी
तक प्रत्येक छोटे-बड़े चुनाव में राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा, चुनाव सर्वेक्षणों द्वारा मोदी छवि को ही आधार बनाया गया है. उनके इस तरह के
विश्लेषण के पीछे पेट्रोल, डीजल की कीमतों की वृद्धि को,
रुपये की कीमत में आती गिरावट को आधार बनाया जा रहा था. केंद्र सरकार
को असफल दिखाने वाले विश्लेषकों ने रोजगार देने के मामले में भी केंद्र सरकार को पिछड़े
पायदान पर दिखाया था. कोशिश ये रही कि कैसे न कैसे करके इन स्थितियों को कर्नाटक चुनाव
से जोड़ते हुए ये साबित किया जाये कि वहां भाजपा की पराजय सुनिश्चित है.
ऐसे
विश्लेषक जिनका विश्लेषण सिर्फ और सिर्फ पूर्वाग्रह पर आधारित रहता है वे किसी न किसी
तरह भाजपा को कर्नाटक में हराते दिख रहे थे. इस तरह के विश्लेषणों के बाद कर्नाटक की
सत्ताधारी कांग्रेस इसके लिए आश्वस्त हो गई थी कि कर्नाटक में वहां के मतदाता उसे ही
चुनेंगे. कांग्रेस राज्य में अपनी पुनर्वापसी को लेकर पूर्णतः आश्वस्त हो गई थी. कर्नाटक
में इन विश्लेषणों के उलट असलियत ये रही कि राज्य में विगत पांच वर्ष के शासन में ऐसी
तमाम विसंगतियाँ उभर कर सामने आईं जिनसे जनता का मोह कांग्रेस से भंग हो गया था. मोदी
छवि के सहारे भाजपा कर्नाटक में भले ही बहुमत का जादुई आँकड़ा न छू सकी हो किन्तु अपने
पिछले प्रदर्शन से कहीं अधिक अच्छा प्रदर्शन कर सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर सामने
आई है.
राज्यपाल
ने सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को आमंत्रित किया. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री के
रूप में शपथ भी ले ली. इसके बाद भी सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर 104 की संख्या को बढ़ाकर
कैसे बहुमत के जादुई अंक तक ले जाया जायेगा? फ़िलहाल तो अभी सदन
में बहुमत सिद्ध करने का कार्य बाकी है और जेडीएस की तरफ से भाजपा पर प्रति विधायक
सौ करोड़ रुपये की पेशकश का आरोप भी लगाया जा चुका है. संवैधानिक विशेषज्ञों की राय
के अनुसार कर्नाटक के राज्यपाल ने भले ही सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा को बुलाकर संवैधानिक
कदम ही उठाया है किन्तु कहीं न कहीं बहुमत के आँकड़े को छूने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त
का अवसर भी तो उपलब्ध करवाया है. ये कहकर कि पूर्व में कांग्रेस की ओर से भी इसी तरह
की स्थितियाँ उत्पन्न करके सरकारें बनाई जाती रही हैं, विपक्षियों
को रोका जाता रहा है कहीं से भी न्यायसंगत नहीं है. सदन में भाजपा, येदियुरप्पा क्या सिद्ध करते हैं, ये समय के गर्भ में
है पर कुल मिलाकर उनकी अग्नि-परीक्षा शुरू हो चुकी है.
nice analysis
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