गौतम बुद्ध का आविर्भाव
भारतीय इतिहास की एक विशिष्ट घटना समझी जा सकती है। वे अपने समय के महापुरुष अथवा तीर्थंकर
माने जाते हैं न कि अलौकिक अवतार, जैसा कि उनकी भक्ति में लीन
बौद्धों ने उन्हें समझा और समाज को समझाया। गौतम बुद्ध को कालान्तर में महिमामंडित
करने की दृष्टि से उनके उपदेशों को, संदेशों को प्रमुखता देने
के अतिरिक्त स्वयं गौतम बुद्ध को भी अलौकिक तत्त्व के रूप में प्रतिस्थापित करने के
प्रयास किये जाने लगे। बौद्ध मतावलम्बियों द्वारा किये गये हैं जिनमें बुद्ध को अलौकिक
रूप में दर्शाने का प्रयास किया गया है। बुद्ध की अलौकिकता को दर्शाते हुए बताया गया
है कि सुजाता नामक कुलीन युवती द्वारा प्रदान उत्तम अन्न की भिक्षा ग्रहण करके बोधिसत्त्व
पीपल के पेड़ (जिसे बोधिवृक्ष कहा गया) के नीचे जा बैठे। यहाँ रात्रि के प्रथम याम में
उन्होंने अपने पूर्वजन्मों की स्मृतिरूपी विद्या प्राप्त की। रात्रि के मध्य याम में
उन्होंने दिव्यचक्षु प्राप्त किये और इसके द्वारा समस्त लोक को अपने कर्मों का फल अनुभव
करते देखा। बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध के अनौत्सुक को देखकर ब्रह्मा उनके सम्मुख
प्रकट हुए और कहा-धर्ममय प्रासाद से शोकावतीर्ण जनता को देखिये और धर्म का उपदेश कीजिये,
जानने-समझने वाले भी होंगे। ब्रह्मा की याचना से बुद्ध ने जीवों पर करुणा
कर बुद्ध-चक्षु से लोक का देखा और पाया कि जैसा सरसी (तलैया) में कुछ कमल जल से अनुद्गत,
कुछ समोदक और कुछ जल से अभ्युद्गत होते हैं, ऐसे
ही जीव भी संसार में आध्यात्मिक विकास की नाना अवस्थाओं में है। बौद्ध धर्मावलम्बी
भी इस घटना की व्याख्या अलग-अलग मतानुसार करते दिखते हैं। एक मत के अनुसार बुद्ध को
देवता (ब्रह्मा) ने संसारियों का उत्पल सादृश्य दिखाया और आध्यात्मिक विकास के धर्म
प्रचार को प्रेरित किया। एक अन्य मत मानता है कि बुद्ध ने निश्चय किया कि वे अतक्र्य
निर्वाण के विषय में मौन धारण करेंगे और केवल मार्ग की देशना करेंगे।
अब यदि उक्त चन्द घटनाओं
के आलोक में बुद्ध और बौद्ध धर्म के आविर्भाव के मूल को जानने का प्रयास किया जाये
तो कहीं न कहीं विभ्रम की स्थिति पैदा होती है। ज़रा-रोगी-मृत्यु को देखकर सांसारिक
मायामोह से विरक्ति का अनुभव कर ज्ञान की खोज में निकले राजुकमार गौतम को सम्बोधि स्वतः
ही बिना गुरु के प्राप्त होती है। ब्राह्मणीय कर्मकाण्डों, पुरोहितों
के दुष्चक्र में फँसे समाज को अपने ज्ञान, वचनों के द्वारा मार्ग
दिखाने वाले गौतम बुद्ध के संशय को भी किसी लौकिक प्राणी ने नहीं अपितु स्वयं ब्रह्मा
ने दूर करते हुए उनसे समाज को धर्म सम्बन्धी उपदेश देने की याचना की थी। बुद्ध के प्रवचनों,
विचारों, उपदेशों, धर्म सम्बन्धी
बौद्धिक विचारों के आधार पर यह तो आसानी से कहा जा सकता है कि गौतम बुद्ध पूर्णतः बुद्धिवादी
थे। वे किसी भी तथ्य को विश्वास की कच्ची नींव पर रखना नहीं चाहते थे, प्रत्युत तर्क-बुद्धि की कसौटी पर सब तत्त्वों को कसना उनकी शिक्षा का प्रधान
उद्देश्य था। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि ऐसे पूर्ण बुद्धिवादी व्यक्ति को मात्र तपस्या
के आधार पर-बिना किसी गुरु के द्वारा-एक रात्रि में बोधज्ञान प्राप्त होना;
संसार को उपदेश देने, न देने की संशयात्मक स्थिति
से बाहर लाने का कार्य ब्रह्मा जैसी अलौकिक शक्ति द्वारा करना कितना तर्कसंगत प्रतीत
होता है?
कहा जाता है कि जागतिक दुःखों
से व्यथित होकर गौतम बुद्ध ने अभिनिष्क्रमण करके प्रव्रज्या ग्रहण की थी। गया के बोधि-वृक्ष
के नीचे ध्यानस्थ होकर उन्होंने प्रातिभज्ञानमय अभिचिन्तन से अज्ञान, वेदना, तृष्णा, उपादान,
जन्म, ज़रा, मरण, शोक आदि के रहस्य को जानकर उन्हें निष्प्रभावी करने की पद्धति का आविष्कार
किया था। यदि इस पद्धति और इसकी क्रियाविधि पर विचार किया जाये तो बुद्ध ने न तो जनम-मरण
के चक्र से छुटकारा पाने का कोई उपाय स्थापित किया था, न ही ज़रा,
शोक, रोग से मुक्ति का कोई सूत्र निर्मित किया
था और न ही अपने उपदेशों, धर्म सम्बन्धी बौद्धिक विचारों के द्वारा
भी ऐसी किसी पद्धति की ओर रेखांकित किया था। उन्होंने शील अर्थात् सदाचार को जीवन में
उतारने पर बल दिया था। आज हम जिन पंचशील सिद्धान्तों की वैश्विक स्तर पर चर्चा करते
हैं, उन पंचशील सिद्धान्तों को महात्मा बुद्ध ने सर्वसाधारण के
लिए सुनिश्चित किया था। ये पंचशील सिद्धान्त हैं- (1) अहिंसा,
(2) अस्तेय (चोरी न करना), (3) ब्रह्मचर्य (यौन दुराचार से दूर रहना), (4) सत्य (झूठ न बोलना), (5) नशीली
वस्तुओं का सेवन न करना। महात्मा बुद्ध द्वारा वैचारिक एवं व्यावहारिक धरातल पर मानव-कल्याण
को समर्पित ये पंचशील कहीं न कहीं उस सनातन संस्कृति, हिन्दू-धर्म
का ही भाग रहे जिसकी एक शाखा के रूप में एक नई धार्मिक शाखा, एक नये धर्म बौद्ध का सूत्रपात भारतभूमि पर हो रहा था।
वर्ण-व्यवस्था के कारण छुआछूत
का दंश सह रहे लोगों को अपना सा लगने वाला धर्म प्राप्त हो चुका था। सामाजिक परिवर्तनों
के प्रति सचेत लोगों को भी कर्मकाण्ड, ब्राह्मणवाद, पुरोहित कर्म से इतर नवीन संकल्पना इस धर्म में दिखलाई दे रही थी। इसके बाद
भी जो स्वरूप बौद्ध धर्म का निखरकर आना चाहिए था कदाचित् वैसा नहीं हुआ। वर्तमान में
यह अपनी जन्मभूमि से लगभग विलुप्त सा होकर दक्षिण एशिया, दक्षिण
पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया के कुछ देशों में ही जीवित है। बौद्ध धर्म की परिणति और
उसके हृास के लिए एक ओर आक्रांता शासक जिम्मेवार रहे तो दूसरी ओर स्वयं बौद्ध समर्थकों,
भिक्षुओं को भी इसका उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। महात्मा बुद्ध द्वारा
अपने श्रोताओं की स्थिति के अनुसार जो भेद हीनयान एवं महायान के रूप में किये गये,
कालान्तर में यही भेद बौद्ध धर्म के पराभव का कारक भी बने।
हीनयान और महायान का यह
विभेद धार्मिक क्रियाकलापों, भाषा, सम्प्रदाय,
दर्शन आदि में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगा। शनैः-शनैः यह विभेद
अपना विस्तारक रूप धारण करता रहा जो अन्ततः बौद्ध धर्म के हृास का एक कारक समझा जा
सकता है। इस विभेद ने इतना विस्तार ले लिया कि हीनयान और महायान महात्मा बुद्ध को भी
अलग-अलग रूपों में देखने लगे। हीनयान सम्प्रदाय के लोग बुद्ध को केवल एक महान व्यक्ति
के रूप में स्वीकारते हैं जबकि महायान के लोग बुद्ध की उपासना देवतुल्य रूप में करने
लगे। इसके अतिरिक्त हीनयान सम्प्रदाय के लोग बोधिसत्त्व में विश्वास न करने वाले,
मूर्ति पूजा न करने वाले, केवल अपने निर्वाण की
चिन्ता करने वाले, निर्वाण प्राप्ति के लिए भिक्षु बनने की अनिवार्यता
वाले माने गये। इसके विपरीत महायान बोधिसत्त्व को स्वीकारते हैं, बुद्ध की मूर्ति की उपासना करना, अपने साथ-साथ अपने साथियों
के निर्वाण की भी चिन्ता करना, निर्वाण के लिए भिक्षु बनने की
अनिवार्यता न मानने वाले रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध जिस दर्शन,
जिन विचारों, जिस जीवनशैली, आचार-विचार के द्वारा बौद्ध धर्म को सम्पूर्ण समाज पर प्रकीर्णित करना चाहते
थे, वह बौद्ध धर्म अनुयायियों के आपसी विभेद के चलते सम्भव नहीं
हो सका।
यदि धार्मिक संकल्पना को
देखें तो बौद्ध दर्शन ने कहीं न कहीं उस विचारधारा को एक नये सिरे से प्रचारित-प्रसारित
करना शुरू किया जो किसी रूप में हिन्दू-धर्म का अंग हुआ करती थी। बुद्ध के पंचशील तो
हिन्दू धर्म-दर्शन का ही भाग कहे जा सकते हैं, यदि बौद्ध धर्म
और हिन्दू-धर्म में कोई विशेष अन्तर दिख रहा था तो वह था मूर्ति पूजा का विरोध,
कर्मकाण्डों का विरोध, ब्राह्मणवाद, पुरोहितवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का विरोध। जैसा कि
बहुलता में होता आया है कि किसी भी धर्म के विकास की अनन्तर यात्रा में उसमें कर्मकाण्ड
सम्बन्धी दोष, सामाजिक बुराइयाँ परिलक्षित होने लगती हैं,
कुछ ऐसा ही बौद्ध धर्म के साथ भी हुआ। कर्मकाण्डों की शुरुआत होने लगी,
संघ में प्रवेश के त्रिरत्नों (बुद्ध, धर्म,
संघ) के सुनियोजन में कमी आने लगी (यद्यपि यह व्यवस्था आज भी अपनी महत्ता
स्थापित किये है) संघ व्याभिचार का केन्द्र बनने लगे, आमजन की
भाषा, पालि के स्थान पर विद्वानों की संस्कृत भाषा को अपनाया
जाने लगा, तान्त्रिक क्रियाओं का समावेश होने लगा। तत्कालीन समाज
ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था आदि से त्रस्त होकर ही व्यक्तित्व
की स्वतन्त्रता हेतु, वैचारिक स्वतन्त्रता हेतु, मध्यम मार्ग अपनाने हेतु ही बौद्ध धर्म की शरण में आया था और प्रकारान्त में
उसे वही बुराइयाँ संघ में, बौद्ध धर्म-दर्शन में दिखाई दी तो
वह इससे छिटक कर अलग हो गया।
इसके अतिरिक्त ब्राह्मण-धर्म
की पुनस्र्थापना, राजकीय प्रश्रय में कमी आना, मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन होना, राजपूतों का उत्कर्ष,
विदेशियों के आक्रमण भी बौद्ध धर्म के हृास का कारण बने। यह स्थिति विचार
करने योग्य है कि जिस तेजी से बौद्ध धर्म का विकास हुआ वह उसी तेजी से समाप्ति की ओर
भी गया। सैद्धान्तिक कारण कुछ भी रहे हों पर व्यावहारिकता में देखा जाये तो कालान्तर
में बौद्ध धर्म अपनी विकासात्मक प्रक्रिया से इतर हिन्दू-धर्म के, उसके क्रियाकलापों, उसके दर्शन के विरोधात्मक रूप में
कार्य करने लगा। बौद्ध धर्म चिन्तकों का निशाना ब्राह्मण वर्ग या कहें कि हिन्दू सवर्ण
वर्ग बनने लगा। दया, करुणा, मानव-कल्याण
का विचार देते-देते बौद्ध धर्मावलम्बी हिन्दू उच्च वर्ग को कोसने का कार्य करने लगे,
इसके मूल में वे वर्ण-व्यवस्था विरोधी लोग थे जो हिन्दू-धर्म में निम्न
वर्ण से आते थे। इस वर्ग ने बौद्ध धर्म में स्वयं को वर्ण-व्यवस्था से मुक्त पाकर स्वविकास,
बौद्धिक विकास, वैचारिक विकास करने के स्थान पर
हिन्दू उच्च वर्ग पर, ब्राह्मण वर्ग पर दोषारोपण करने का कार्य
किया। इससे वह उच्च वर्ग बौद्ध धर्म से जुड़ने में असहज महसूस करने लगा हो जो बौद्ध
धर्म को, दर्शन को मानव-कल्याण हेतु स्वीकारता था; वे बौद्ध मतावलम्बी पुनः हिन्दू धर्मोन्मुख हुए जो ब्राह्मण कर्मकाण्ड,
पुरोहिती के चलते बौद्ध धर्म में आये।
वर्तमान स्थिति यह है कि
स्वयं बौद्ध धर्मावलम्बियों में इसको लेकर विवाद बना हुआ है कि महात्मा बुद्ध की असली
विरासत किसके पास है? हीनयान और महायान में विभक्त हुई विभ्रम
की स्थिति ने बौद्ध धर्म को, दर्शन को एक विचारधारा बना दिया।
इस विचारधारा को जो जैसा चाहे वैसा तोड़-मरोड़ कर पेश कर सकता है। गौतम बुद्ध के पंचशील
सिद्धान्त को सार्वभौम समझकर बौद्ध धर्म को सर्वोच्च धार्मिक सत्ता पर प्रतिस्थापित
करने के प्रयास में अवसरवादी नजरिया भी सामने आने लगा। इससे लाभान्वित लोगों ने स्वार्थपरक
सोच को अपना कर बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि की प्रार्थना को भुला दिया।
वहीं दूसरी ओर बौद्ध धर्म से विचलित, अलाभकारी लोगों ने बौद्ध
दर्शन की बौद्धिकता को अपनी वैचारिक स्वतन्त्रता से छिन्न-भिन्न करना प्रारम्भ कर दिया।
किसी ने सिद्धार्थ के गृह-त्याग को ज्ञान की खोज बताया तो किसी ने उनकी पलायनवादी प्रकृति;
किसी ने बुद्ध को शान्ति, अहिंसा का प्रचारक बताया
तो किसी ने धार्मिक आन्दोलन का सूत्रधार बताया; कोई आज भी बुद्ध
का नाम लेकर शान्ति, अहिंसा, प्रेम का सपना
देखता है तो कोई बुद्ध को मनुवादी व्यवस्था को कोसने का हथियार बनाता है; किसी के लिए बुद्ध निर्वाण प्राप्ति का मार्ग हैं तो किसी के लिए सत्ता पाने
का माध्यम। इस तरह नहीं लगता कि लगभग मृतप्राय हो चुके बौद्ध धर्म को पुनर्जीवन प्राप्त
हो सकेगा। बौद्ध धर्म के आविर्भाव का उद्देश्य कदापि किसी धर्म का विरोध करना नहीं
था, किसी व्यवस्था का विरोध करना नहीं था। महात्मा बुद्ध ने एक
महापुरुष के रूप में समाज को दिशा देने का कार्य किया था, अपने
उपदेशों, वचनों के द्वारा वे समाज में फैली विषमताओं को,
विसंगतियों को, भेदभाव को मिटाना चाहते थे। ऐसा
कर पाने में वे कितने सफल रहे यह एक अलग विषय हो सकता है किन्तु बौद्ध धर्म के आविर्भाव
से लेकर वर्तमान तक की यात्रा से यह तो स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध के उपदेशों को,
विचारों को स्वयं उन्हीं के अनुयायियों द्वारा सकारात्मक रूप से आत्मसात्
नहीं किया गया। देखा जाये तो वर्तमान संदर्भों में समाज को शान्ति, प्रेम, अहिंसा की आवश्यकता है, वह चाहे किसी भी धर्म के द्वारा प्राप्त हो। यदि बौद्ध धर्मावलम्बियों को ऐसा
लगता है कि आज भी समाज को, विश्व को प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा का संदेश देने
के लिए बौद्ध धर्म ही एकमात्र विकल्प है तो इन धर्मानुयायियों को बौद्ध धर्म में व्याप्त
हो चुकी उन बुराइयों को दूर करना होगा जिनके कारण बौद्ध धर्म रसातल की ओर गया। महात्मा
बुद्ध को भगवान से इतर महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित कर उनके उपदेशों, विचारों को समाज के बीच प्रतिस्थापित करना होगा क्योंकि समाज का आदर्श कोई
महापुरुष तो हो सकता है, ईश्वर कदापि नहीं। यदि बौद्ध धर्मावलम्बी
इस धर्म को पुनर्जीवन प्रदान करना चाहते हैं; उसके दर्शन का प्रचार-प्रसार
चाहते हैं; समाज में बौद्ध धर्म की प्रासंगिकता स्थापित करना
चाहते हैं तो समाज में पुनः बुद्ध और बौद्ध दर्शन को, उसके ज्ञान
को, उसकी शिक्षाओं को केन्द्रबिन्दु बनाना होगा किन्तु उससे पूर्व
उसका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक है।
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