आज, २० मार्च को विश्व
गौरैया दिवस मनाया जाता है. वर्तमान परिदृश्य जिस तरह का है उसमें वर्तमान पीढ़ी के
बहुत से बच्चों ने गौरैया को देखा भी नहीं होगा. ऐसे बच्चों-युवाओं के लिए गौरैया तस्वीरों
में, फिल्मों में देखने वाला पक्षी बन गया है. महानगरों में,
मेट्रो शहरों के अलावा ऐसे शहर जहाँ आधुनिक सभ्यता तेजी से फैलती जा
रही है वहाँ मानव का विकास तो हुआ मगर गौरैया का विनाश होता चला गया. गौरैया अचानक
ही हम लोगों के जीवन से गायब नहीं हुई है. सत्तर-अस्सी के दशक में जन्म लेने वाली पीढ़ी
ने तो गौरैया के साथ अपना बचपन गुजारा है, संभव है कि कहीं-कहीं
नब्बे के दशक में जन्मे लोगों ने भी गौरैया के साथ थोडा-बहुत खेलकूद कर लिया हो. इसके
बाद की जन्मी पीढ़ी ने बमुश्किल गौरैया को देखा-सुना होगा.
आज तो गौरैया हमारे घरों
के आँगन, छतों में मिलना तो बहुत दूर की बात होती जा रही है,
वह शहर में भी गिनी-चुनी संख्या में, गिनी-चुनी
जगहों पर दिखाई दे रही है. जिन लोगों ने भी इसके साथ अपना बचपन बिताया है, अपने दिन बिताये हैं उन्हें भली-भांति याद होगा कि इस नन्हीं चिड़िया का जीवन-चक्र
इंसानी माहौल के बीच, मानव-परिजनों के बीच ही बीतता था. परिवार
के छोटे-बड़े कामों में घर की छत, आँगन का उपयोग किया जाता था.
रोजमर्रा के कामों के साथ-साथ किसी भी तरह के आयोजनों में खाद्य-पदार्थों का समूचा
प्रक्रम घर-परिवार के बीच ही संपन्न होता था. गेंहू, अनाज का
धोना-सुखाना, अचार, पापड़, चिप्स आदि के बनाये जाने, उनके सुखाये जाने की सम्पूर्ण
प्रक्रिया घर के छत-आँगन में ही संपन्न होती थी. इसके अलावा परिजनों का भोजन करना एकसाथ
होता था और वो भी घर के बरामदे में, खुले में ही. सर्दियों में
तो छत या खुली जगह पूरे परिवार की डायनिंग टेबल बन जाया करती थी. ऐसे में जहाँ पूरा
परिवार एकसाथ बैठकर अपना पेट भर रहा हो उस नन्हीं गौरैया का परिवार कैसे भूखा रह जाता?
थालियों, कटोरियों के बीच से उसके नन्हे से पेट
के लिए खाद्य-सामग्री सहज रूप से स्वतः ही निकलती रहती थी.
इधर अब मानव गौरैया को बचाने की
वकालत करने में लगा है,
उसके पहले वह ये तो जान ले कि इस नन्हे पक्षी को विलुप्त पक्षी की श्रेणी
में खड़ा करने वाला भी वही इन्सान है. गाँव वीरान होते जा रहे हैं. छोटे शहर बड़े शहरों
की नक़ल करने में लगे हैं. बड़े शहर महानगर बनते जा रहे हैं. महानगर मेट्रो बनने की दौड़
में शामिल हैं. ऐसे में चारों तरफ कंक्रीट के जंगल ही खड़े दिखाई देते हैं. छोटे-छोटे,
खुले मकानों की जगह पर बड़ी-बड़ी इमारतें, बहुमंजिली
इमारतें, दबड़े, जेलनुमा अपार्टमेंट्स दिखाई
देने लगे हैं. जंगल तो लगातार समाप्त होते ही जा रहे हैं, शहरों
में से भी बड़ी तेजी से पार्क, बाग़-बगीचे, पेड़-पौधे विलुप्त हो रहे हैं. बड़े-बड़े पेड़ों के समाप्त होने के साथ-साथ घरों
में से रोशनदान भी समाप्त हो चुके हैं. आँगन-छतें तो पहले से ही गायब हैं. आधुनिकता
के चलते एक तिनका भी घर के कोने में न देखने वाला इन्सान गौरैया का घोंसला कैसे बर्दाश्त
कर सकता है. परिणामस्वरूप घोंसला-विहीन गौरैया कहाँ, कैसे अपने
अंडे देती? कहाँ उन्हें सेती? कैसे बच्चे
उनमें से जन्म लेते?
इन सबके अलावा मोबाइल टावर से
होने वाले रेडियेशन ने भी गौरैया को नुकसान पहुँचाया है. इसी तरह से ग्लोबल वार्मिंग
के चलते बढ़ते तापमान ने भी उसकी जान ली है. हम लोग यदि चंद छोटे-छोटे सकारात्मक, सार्थक कदम उठा
लें तो आज भी बची-खुची गौरैयाओं के सहारे उनकी संख्या को बढ़ाया जा सकता है. यदि हमारा
घर आज भी ऐसी स्थिति में है जहाँ अहाता है, खुला स्थान है तो
वहां गौरैया के घोंसले बनाने लायक जगह की व्यवस्था की जा सकती है. यदि हमारा घर छोटा
है तो उसकी बालकनी में, खिड़की के रोशनदान में इन चिड़ियों को
आहार और घरौदें बनाने के लिए कृत्रिम घरौंदों की व्यवस्था कर सकते हैं. उनके लिए पानी,
खाद्य-पदार्थ का इंतजाम कर सकते हैं. घरों में सुरक्षित स्थानों पर गौरैया
के घोंसले बनाने वाली जगहों का विकास किया जा सकता है और ऐसा न होने पर लकड़ी,
प्लास्टिक के डिब्बों या मिट्टी के घोंसले बनाकर लटकाये जा सकते हैं.
आज की पीढ़ी यदि इस लेख को पढ़ेगी
तो समझ ही नहीं सकेगी कि किसकी बात हो रही है? उनकी जानकारी के लिए संक्षिप्त रूप में,
घरेलू गौरैया एक ऐसा पक्षी है जो यूरोप और एशिया में सामान्य रूप से
हर जगह पाया जाता है. शहरी इलाकों में गौरैया की छह तरह ही प्रजातियां पाई जाती हैं.
ये हैं हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंड
स्पैरो, रसेट स्पैरो, डेड सी स्पैरो और
ट्री स्पैरो. इनमें हाउस स्पैरो को ही गौरैया कहा जाता है. यह शहरों में ज्यादा पाई
जाती हैं. यह एक छोटी चिड़िया है जो हल्की भूरे रंग की होती है. इसके शरीर पर छोटे-छोटे
पंख, हलकी पीली चोंच व हलके पीले रंग के पैर होते हैं. नर गोरैया
की पहचान उसके गले के पास बने काले धब्बे से होती है. मादा गौरैया में ऐसा धब्बा नहीं
पाया जाता. नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों
पर पर भूरे रंग का होता है. गला चोंच और आँखों पर काला रंग होता है और पैर भूरे होते
हैं. मादा के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होता है. बहुत सी जगहों पर नर गौरैया को
चिड़ा और मादा चिड़ी या चिड़िया भी कहते हैं. सामान्यतः यह चिड़िया हमारे घरों के आसपास
रहना पसंद करती है.
अपने आसपास रहने वाले इस पक्षी
के बिना हम सबको बुरा लगता है,
लगना भी चाहिए. हम लोगों के साथ खेलकूद कर अपना जीवन हम लोगों के साथ
गुजारने वाली ये नन्हीं गौरैया आज कभी-कभार ही दिखाई देती है. वह फिर से हमारे साथ
रहे. फिर से हमारे साथ खाए-पिए. फिर से हमारे साथ छत-आँगन में टहले-उड़े. यदि यह सब
संभव करना है तो हम इंसानों को अपनी जीवन-शैली में कुछ बदलाव करने होंगे. नन्हीं गौरैया
को बचाने के लिए कुछ सार्थक, ठोस कदम उठाने होंगे.
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सारे चित्र लेखक द्वारा कैमरे से निकाले हुए हैं.
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