जब-जब भी किसी के अंतिम
संस्कार के लिए श्मशान घाट जाना होता है तब-तब मन अजब तरह से व्यथित हो उठता है.
संसार भर के काम करने वाले, संसार में किसी तरह के काम न करने वाले, समाज के लिए
उपयोगी और समाज के लिए अनुपयोगी, समाज को दिशा देने वाले, समाज को दिशा न देने वाले
आदि-आदि सबकी अंतिम स्थली यही है. धर्म, मजहब के अनुसार इस जगह के नाम बदल गए हैं,
अंतिम संस्कार के तौर-तरीके बदल गए हैं मगर किसी भी इन्सान की अंतिम परिणति यही
है. इसके बाद भी देखने में आता है कि लोगों में हाय-तौबा मची हुई है. किसी न किसी
बात के लिए हवस बनी हुई है. सब कुछ अपने वश में कर लेने का अहंकार दिखाई देता है.
सबको अपना गुलाम बनाने की कुत्सित मानसिकता पनपती रहती है. अनावश्यक रूप से
भौतिकतावादी दौड़ में शामिल हुआ जाता है. बहरहाल, सबकी अपनी-अपनी सोच, सबकी
अपनी-अपनी मानसिकता है, इसमें कोई दूसरा कुछ कर भी नहीं सकता है. यहाँ बात दूसरे
की न करते हुए यदि हम खुद की करें तो लगभग हर बार श्मशान घाट आने के बाद अपने किये
गए कार्यों की रूपरेखा, अपनी भावी कार्यों की योजना, अपनी वर्तमान स्थिति
मन-मष्तिष्क में घूमती रहती है. क्या कर चुके, क्या कर रहे हैं, क्या करेंगे आदि
का लेखा-जोखा दिल-दिमाग के द्वारा किया जाने लगता है. हालाँकि अपने दिन भर के
कार्यों का हिसाब-किताब हम विगत कई दशकों से बराबर लगाते आ रहे हैं. पूज्य बाबा जी
द्वारा दी गई तमाम सारी शिक्षाओं में से एक यह भी थी कि रात को सोने से पहले कुछ
देर में अपने दिन भर के कार्यों का अवलोकन कर लेना चाहिए. खुद आकलन करना चाहिए कि
क्या सही किया, क्या गलत कर दिया. जो सही किया, उसे जारी रखा जायेगा और जो गलत कर
दिया गया, उसकी पुनरावृत्ति न हो. नियमित रूप से ऐसा करने के बाद भी तमाम सारे
असमंजस दिमाग में उथल-पुथल मचाये रहते हैं. यही उथल-पुथल ऐसे किसी मौके पर और
विशाल आकार धारण करके सामने आ जाते हैं.
समझ नहीं आता है कि समाज के
लिए हम क्या कर पा रहे हैं? जो कर रहे हैं क्या वह काफी है? क्या सारा समय हम भी
नितांत आम आदमी की तरह ही निकाल देंगे? कई बार लगता है कि आखिर उन्हें क्या मिल गया
जो देशहित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर गए? आखिर उन्हें क्या मिला जो आज भी समाज
के लिए अपना सबकुछ लुटाने में लगे हैं? ये और बात है कि ऐसे लोगों को समाज में
लम्बे समय तक याद रखा जाता है मगर आज जिस तरह से समाज में एक-एक व्यक्ति के
अपने-अपने खांचे बने हैं, अपनी वैचारिकी बनी हुई है इससे व्यक्तियों ने संकुचित
दृष्टि से देश के नायकों को देखना शुरू कर दिया है. ऐसे में विचार आता है कि जितना
काम, जितनी निस्वार्थ सेवा हमारे देश के वास्तविक नायक कर चुके हैं, उतना आज शायद
ही कोई कर सके. जब इस देश के लोग उन वास्तविक नायकों को विस्मृत करने में लगे हैं,
उनका अपमान करने में लगे हैं, उनको भी राजनैतिक खाँचों में बंद करने में लगे हैं
तो आज के आदमी की, हमारी क्या बिसात कि अपने कार्यों के द्वारा समाज में कोई
सम्मानजनक स्थान बना सकें. ऐसे में विचार आता है कि समाज में हम सबका, खुद हमारा
भी दायित्व सिर्फ अपने परिजनों का, अपने परिवार का पालन-पोषण करना, उनका भरण-पोषण
करना मात्र रह गया है?
कहीं न कहीं यह सत्य ही है कि
आज बहुत कम लोग वास्तविक रूप से सामाजिक कार्यों के लिए खुद को आगे ला रहे हैं. हम
खुद को भी इसी कड़ी में शामिल मानते हुए अक्सर इससे बाहर निकलने की कोशिश में लगे
रहते हैं. परिवार के बंधनों को तोड़ने की कोशिश में ये बंधन और मजबूती से जकड़ते
लगते हैं. इस उलझन में हमारी दिमागी उलझन उस समय और बढ़ जाती है जबकि समाज के बीच
से ऐसे उदाहरणों को सामने आता देखते हैं, जो परिवार के होने के बाद भी, संसाधनों
के अभावों के बाद भी, शारीरिक अक्षमता के बाद भी, तमाम तरह के कष्टों के बाद भी
खुद को समाजहित में लगातार सक्रिय बनाये हुए हैं. ऐसे लोग न तो नौकरी करने को
मजबूर दिखाई देते हैं, न ही आर्थिक संसाधनों को पैदा करने की मंशा रखते हैं, न ही
धनोपार्जन की कोई कोशिश करते दिखाई देते हैं. यही सब भी उथल-पुथल का कारण बनता है.
एक व्यक्ति के लिए सर्वोपरि क्या होना चाहिए? उसका खुद का हित, उसके परिजनों का
हित, समाज का हित? उसके लिए मुख्य क्या होना चाहिए उसके खुद के शौक, परिवार के शौक
या फिर समाज की आवश्यकताएं? इसी उथल-पुथल के बीच खुद के साथ सामंजस्य बिठाने की
कोशिश करते रहते हैं. मन को मारकर वो काम भी किये जाते हैं जिनको करने के बारे में
कभी सोचा नहीं था. उन सारी स्थितियों से समझौता करना पड़ता है जिनको एक झटके में
समाप्त किया जा सकता है. किसी न किसी मजबूरी के चलते ऐसे लोगों के सामने झुकना
पड़ता है जिनका अस्तित्व सामने खड़े होने भर का भी न होता है.
ऐसे तमाम सारे ऊहापोह के बीच
दिमाग को झटक कर वापस फिर उसी मोड में आ जाते हैं, वापस उसी भूमिका में आ जाते हैं
जो पारिवारिक जिम्मेवारियों ने ओढ़ा रखी है. इसी जिम्मेवारी के साथ-साथ और भी
दायित्वों को पूरा करने की कोशिश चलती रहती है. कभी सफलता मिलती है, कभी असफलता
मिलती है. समय लगातार गुजर रहा है, वह किसी के लिए नहीं रुकता है. हाँ, यदि
वास्तविकता में कुछ सार्थक करना है, तमाम तरह की अनर्गल उथल-पुथल से बाहर आना है
तो भले ही समय को न रोक सकें मगर समय को बर्बाद भी नहीं होने देना है. फ़िलहाल तो
समय गुजर भी रहा है, बर्बाद भी हो रहा है अब देखना ये है कि समय के साथ कब चल पाते
हैं? उसको बर्बाद होने से कब रोक पाते हैं?
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