14 मार्च 2018

उपचुनाव जीत-हार के निहितार्थ


फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम सामने आये. दोनों सीटें भाजपा हार गई, जीत सपा के हिस्से आई. जिस दिन से इन चुनावों की रूपरेखा बननी शुरू हुई, इनके उम्मीदवार तय हुए, सपा-बसपा का स्वार्थगत गठबंधन हुआ उसी दिन हमने अपने राजनैतिक मित्रों से स्पष्ट रूप से कह दिया था कि फूलपुर सीट भाजपा हारेगी और सपा जीतेगी. हाँ, गोरखपुर सीट के बारे में स्थिति उस विज्ञापन की तरह फिफ्टी-फिफ्टी वाली थी. आज सुबह तक फूलपुर हारी हुई तय लगी और गोरखपुर में वही फिफ्टी-फिफ्टी का आँकड़ा दिख रहा था. दोनों जगह सपा के जीतने का आँकड़ा पहले से ही स्पष्ट कर दिया था हमने. हो सकता है कि बहुत से लोगों को इसमें भी किसी तरह की भक्ति दिखाई दे रही हो, ऐसे लोग वे ही होंगे जिनके लिए राजनीति का अटलब सिर्फ वोट डालने भर से है या उससे भी एक कदम आगे आकर चाय-पान की दुकान पर खड़े होकर मुंह को कसरत करवा देने वाले हैं या फिर मुफ्त के सोशल मीडिया में आकर दे दनादन पोस्ट के द्वारा खुद को सबसे बड़ा राजनीतिक विश्लेषक बताते फिरते हैं. ये वही लोग हैं जिनकी नीतियों को उनके घरों में भी अमल में नहीं लाया जाता है. फ्री के सोशल मीडिया पर या फिर मुफ्तखोरी की चाय के साथ बकबकी करने वाले ऐसे लोग जबरिया खुद को किसी भी राजनैतिक स्थिति का पारंगत मानते हैं.


जिन लोगों में वास्तविक रूप से राजनीति को समझने की अकल होगी वे इन दोनों सीटों पर भाजपा की हार के विश्लेषण को बहुत गंभीरता से ले रहे होंगे. इस गंभीरता में सबसे बड़ा सूचक ये है कि दोनों जगह सपा ही क्यों जीती? दोनों सीटों पर कांग्रेस की जमानत जब्त क्यों हुई? जो भी इस समीकरण को हल कर लेगा वह चुप लगाकर आगामी लोकसभा में भाजपा की राह के और तीव्रगति से साफ़ होने के आसार देखने लगेगा. हमारा मानना है कि महज एक साल के लिए लोकसभा के इन उपचुनावों पर भाजपा ने विपक्ष की असलियत को सामने ला दिया. एकबारगी मान भी लिया जाये कि जनता भाजपा से नाराज है तो इन परिणामों से स्पष्ट है कि कांग्रेस उसी जनता की पसंद नहीं है. सपा की जीत का आशय महज इसी से लगाया जाये कि यही जनता यदि कांग्रेस को नहीं चाहती है तो बसपा को भी पसंद नहीं कर रही है. सपा-बसपा के तात्कालिक गठबंधन को भले ही दोनों दलों के शीर्ष नेता स्वीकार कर लें मगर वे जमीनी नेता जिन्होंने मुक़दमे लड़े हैं, लाठियाँ खाई हैं वे कैसे स्वीकार करेंगे. इसमें उस गेस्ट हाउस कांड को बिलकुल न जोड़ा जाये जो मायावती के लिए जिंदगी भर भुलाना संभव नहीं.

इस स्थिति के साथ-साथ एक और स्थिति भी बहुत साफ़ होती है. बिना शर्त सपा से भाजपा में शामिल हुए नरेश अग्रवाल महज एक स्थिति नहीं बल्कि आगामी राजनैतिक भूमिका है. इस भूमिका की पूर्व-पीठिका खुद मायावती द्वारा लिखी गई. राज्यसभा की सीटों के लिए मायावती ने बसपा से किसी बसपाई का नाम स्वीकृत नहीं किया बल्कि सपा के ही उम्मीदवार पर अपनी मुहर लगाई है. आज की स्थिति में बसपा न केवल लोकसभा से वरन राज्यसभा से भी बाहर होने की कगार पर है, उत्तर प्रदेश में तो लगभग बाहर हो ही चुकी है. इन स्थितियों में नरेश अग्रवाल का भाजपा में लिया जाना, महज एक सीट का सवाल नहीं बल्कि एक पूरी की पूरी पार्टी को समाप्त कर देने वाला कदम है. इस कदम को इन दोनों उपचुनावों के परिणामों ने मुहर लगाकर अपनी स्वीकृति दे दी है. लगभग एक साल से कम के लिए निर्वाचित होने वाले इन सांसदों से बहुत कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है मगर राजनीति के लम्बे खिलाड़ियों के लिए इसी में से नई सोच निकलती दिखाई देगी.

ऐसा नहीं कहा जा सकता कि जनता का आक्रोश भाजपा के विरुद्ध नहीं है. जनता बहुत सी परेशानियों, समस्याओं को लेकर भाजपा से नाराज है मगर इसका मतलब ये कतई नहीं कि वह लोकसभा के लिए मोदी जी से नाराज है, भाजपा से नाराज है. आज भाजपा से, मोदी जी से जिस तरह की नाराजी सोशल मीडिया पर देखने को मिल रही है उसके पीछे विपक्ष की सोशल मीडिया विंग है और कुछ भी नहीं. गैर-भाजपाइयों के विगत के लम्बे लोकसभा कार्यकाल को देखने के बाद और वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यों को देखने के बाद जनता इतना तो समझ चुकी है कि इस सरकार के किये गए वादों को पूरा करने में भले ही देरी हो रही हो मगर घोटालों, भ्रष्टाचारों, परिवारवाद को बढ़ाने में ये सरकार कतई आगे नहीं है. जनता को एकबार यह विश्वास हो जाये कि उसके प्रति सरकार का नजरिया सार्थक, सकारात्मक है उसके बाद उसकी कई-कई गलतियों को माफ़ किया जा सकता है. फूलपुर-गोरखपुर उपचुनाव की हार कुछ इसी तरह की कहानी कहती है अन्यथा की स्थिति में सपा के जीतने का कोई ठोस कारण बताया जाये.

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