लिख रहे थे तो समस्या थी
लोगों को, अब नहीं लिख रहे हैं तब भी समस्या हो रही है लोगों को. समस्या हमें न तो
लिखने से हो रही थी और न ही अब न लिखने से हो रही है. लिखने का ही नहीं बल्कि कोई
भी काम किया है तो ये सोचकर कभी नहीं किया कि लोग क्या कहेंगे क्योंकि लोग सिवाय
कहने के कुछ और कर ही नहीं पाते. इसे यदि ये कहा जाये कि बहुतेरे लोगों के पास कुछ
कहने के अलावा और कुछ करने की औकात ही नहीं होती तो अतिश्योक्ति न होगी. अरे,
बताते चलें ये लिखा-लिखाई, न लिखा-लिखाई की बात हो रही फेसबुक पर. इसी चौदह जनवरी
से फेसबुक पर बनी अपनी प्रोफाइल पर किसी तरह की कोई सामग्री पोस्ट नहीं की, न ही
विचार, न फोटो, न वीडियो. हाँ, अपने पेज पर यथासंभव बहुत आवश्यक होने पर ही कुछ
लिखा है अन्यथा वहां भी अपने इसी ब्लॉग पोस्ट की लिंक शेयर करते रहे हैं. हाँ तो
जैसा आपको बताया कि कभी इसकी चिंता नहीं की कि लोग क्या कहेंगे, सो जो मन आया वो
लिखा, जो मन किया वो किया. इसी लिखा-पढ़ी में बहुत सी बातें ऐसी हुईं जो लोगों के
आगे से लेकर पीछे तक, ऊपर से लेकर नीचे तक आग ही आग लगा गईं. इस आगलगी की तपन हम
तक इधर-उधर से आती और हम निश्चिन्त से अपने काम में लगे रहते.
ये समस्या तब बढ़ी जबकि साथ के
लोगों को हमारे लिखे से समस्या होने लगी. एक महाशय जिन्हें हम अपने साथ का समझते
रहे वे भी गुलाट खाकर दूसरी तरफ चले गए. उनकी इस गुलाट ने हमें बताया कि हमारे
लिखे ने या फिर हमने अपने लिखने से समाज में खाई बना दी है. ऐसी कुछ और बातें
छन-छन कर हमारे पास आती रहती मगर हम किसी पर कान दिए बिना अपना लेखन करते रहते. हद
तब हो गई जब हमारे अभिन्न लोगों ने हमें एहसास कराया कि हम बुद्धिजीवी टाइप
व्यक्ति हैं. समाज में हमारा भी महत्त्व है. हमारे ऐसे लेखन से हमारी इज्जत गिर
रही है. हमारी साख गिर रही है. जब आपके अभिन्न बताएं कि आपकी इज्जत गिर रही है,
साख गिर गई है तब लगता है कि वाकई कुछ गिर गया है. उन महाशय की कही बात का कोई
फर्क नहीं पड़ा था मगर इसका फर्क पड़ा. शहर भर घूमते फिर अगले कई दिन. कहीं इज्जत
गिरी न दिखी. कहीं साख गिरी न दिखाई दी. वो खाई भी न दिखाई दी जो हमारे लिखने से
बनी थी. उसी क्षण सोचा कि बस, अब और नहीं. पहले जहाँ-जहाँ हम अपनी इज्जत गिरा आये हैं, जहाँ-जहाँ
अपनी साख गिरा आये हैं उसे वहां से उठा लायें. समाज में जहाँ-जहाँ खाई बना दी है
उसे भर दें. उस खाई में जो-जो गिर चुके हैं उन्हें जीवित निकाल लें फिर कुछ लिखा
जायेगा.
अब पिछले लगभग दो माह से कुछ
नहीं लिखा जा रहा है तो भी लोग परेशान हैं. रोज ही स्थानीय दो-चार लोग टोक देते
हैं. फेसबुक के बाहरी लोगों को तो कोई मतलब नहीं कि क्यों नहीं लिख रहे, कहाँ गायब
हैं. स्थानीय लोगों ने लगातार हमसे न लिखने का कारण पूछा तो उनसे यही कहा कि हमारा
लेखन खाई पैदा कर रहा था, लोगों को भटका रहा था. हमारी अपनी इज्जत को गिरा रहा था,
हमारी साख को गिरा रहा था, सो पहले ये सब दुरुस्त हो जाये तब कोशिश की जाएगी लिखने
की. इधर आज की घटना से लगा जैसे हमारा न लिखना सही कर रहा है किसी न किसी के लिए.
सदन में दैव-चौपाई के द्वारा शराब की तुलना देवियों-देवताओं से करने वाले को उसी
दल में जगह मिल गई जो इन्हीं देवी-देव के नाम की रोटी खा रहा है. सब हतप्रभ से खड़े
देख रहे हैं, बस देख ही रहे हैं. कल को इन अग्रवाल साहब की जय-जय करनी पड़ेगी. आखिर
स्वामी प्रसाद की भी तो कर रहे हैं. समाज में हमारे लेखन से बनी खाई में गिरने
वाले तमाम बुद्धिभोगी बताएँगे कि ऐसे नेताओं की बनी खाई में कौन-कौन गिर रहा है?
बताएं कहीं ऐसे लोगों की कलम, ऐसे लोगों की इज्जत, ऐसे लोगों की वैचारिकी तो उसमें
नहीं गिर रही? हम तो हम ही हैं, हम ही हम हैं... अपनी गिरी इज्जत, गिरी साख खोजकर
उठा ही लायेंगे, आखिर दिन-रात सड़क पर ही टहलते हैं, लोगों के बीच मगर वे सोचें कि
वे जहाँ गिर चुके हैं वहां से उठकर कैसे ऊपर आयेंगे?
हाँ, चलते-चलते बताते चलें कि
हमारे अभिन्न लोगों ने बताया था कि हमारी साख गिर रही है, हमारी इज्जत गिर गई है
(हालाँकि इसका हमें पता न चला कि कब गिरी?) बस उसी इज्जत, उसी साख को उठा लायें
वापस, जहाँ-जहाँ गिरी, वहां से... उसके बाद लिखने लगेंगे. हाँ, हमारा लिखा पढ़ने का
जिन्हें शौक ही है वे हमारे इस ब्लॉग पर आयें, हमारे फेसबुक पर पेज पर जाएँ, ट्विटर
एकाउंट पर आयें. वहां तो हम ज्यों के त्यों हैं क्योंकि वहां हमारी इज्जत, हमारी
साख नहीं गिरी है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें