02 फ़रवरी 2018

अपनी-अपनी नजर का बजट

चुनावी वर्ष में बजट का आना और उसके बाद भी लोक-लुभावन न होना केंद्र सरकार की हिम्मत को ही दर्शाता है. अगले वर्ष 2019 को लोकसभा चुनाव होना है, ऐसी सम्भावना भी व्यक्त की जा रही है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले भी हो सकते हैं. ऐसे में वर्तमान वर्ष 2018 के बजट को चुनावों से सम्बद्ध करके देखा जा रहा था. ऐसी सम्भावना जताई जा रही थी कि केंद्र सरकार आगामी वर्ष में चुनावों को देखते हुए अपने बजट को लोक-लुभावन बनाएगी. जैसा कि प्रत्येक बजट के समय होता है कुछ वैसा ही इस बार भी हुआ. सत्ता पक्ष ने इस बजट को राष्ट्र-निर्माण में, राष्ट्र-विकास में सहायक बताया वहीं विपक्ष ने इस बजट को नकारात्मक सिद्ध करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. यहाँ बजट को उसके चुनावी वर्ष में आने या फिर भाजपा द्वारा पेश किये जाने से जोड़कर न देखा जाये तो उसकी कमियां, उसके लाभ सामने सहजता से आ सकेंगे. देश भर के बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ सोशल मीडिया के वे लोग जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी अर्थशास्त्र विषय को देखा भी नहीं वे भी इस बजट की समीक्षा करने में लगे हैं.


किसी भी बजट में कमियां हो सकती हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है पर क्या सिर्फ उसी बजट को बेहतर माना जाये जिसमें नौकरीपेशा वालों के लिए आयकर छूट उपलब्ध हो? क्या उसी बजट को ज्यादा जनहितकारी माना जाना चाहिए जिसमें भौतिकतावादी वस्तुओं की कीमतों में कमी की गई हो? यहाँ ध्यान रखना होगा कि वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था 160 लाख करोड़ रुपयों के साथ विश्व की सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है. ऐसी सम्भावना जताई जा रही है कि जल्द ही भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी. ऐसा होते ही हमसे आगे अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी ही होंगे. जो लोग इस तथ्य पर गर्व कर सकते हैं उन्हें शायद वर्तमान बजट से किसी तरह की कोई शिकायत न हो मगर ऐसे लोग जिनके लिए सिर्फ राजनैतिक दल ही महत्त्वपूर्ण है उनको अवश्य ही इस बजट से शिकायत होगी. यदि वर्तमान केंद्र सरकार के रूप में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के कार्यकाल पर गौर किया जाये तो उनके कार्यों की आज न केवल देश में वरन वैश्विक स्तर पर प्रशंसा हो रही है. ऐसे में वर्तमान बजट को लेकर सम्भावना व्यक्त की जा रही थी कि कहीं न कहीं पूरे बजट में मोदी अपने उसी छवि को आरोपित करने की कोशिश करेंगे जिससे आगामी लोकसभा चुनावों में उनको मदद मिल सके.

यदि इस बजट के सरकार द्वारा खर्चा किये जाने के आँकड़ों पर गौर किया जाये तो साफ़ तौर पर ज्ञात होता है कि उसके द्वारा रक्षा पर सर्वाधिक खर्च किया जा रहा है. यदि सरकार की आय को सौ रुपये माना जाये और उसके सापेक्ष व्यय का अनुमान लगाया जाये तो रक्षा पर सर्वाधिक 12.2 रुपये खर्च किये जायेंगे. इसके बाद खाद्य पदार्थों पर सब्सिडी (6.8 रुपये), पेंशन (6.1 रुपये), ग्रामीण विकास (6.0 रुपये), यातायात परिवहन (5.8 रुपये), घरेलू कामकाज (3.9 रुपये), शिक्षा (3.7 रुपये), खाद पर सब्सिडी (3.3 रुपये), कृषि (2.6 रुपये) और स्वास्थ्य (2.3 रुपये) खर्च किया जायेगा. स्पष्ट है कि सरकार का मुख्य उद्देश्य रक्षा के बाद ग्रामीण विकास को महत्त्व देना है. इस बजट में अनुमान है कि कार, बाइक, स्कूटर, फोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रोनिक सामान, सोना, चाँदी, फर्नीचर, सिगरेट आदि मंहगे हो जायेंगे. मध्यम वर्ग को भी बहुत बड़ी राहत नहीं दी गई है. आयकरदाताओं को भी किसी तरह की कोई रियायत नहीं दी गई है. बजाय किसी राहत के सेस को एक फ़ीसदी और बढ़ा दिया गया है. इसका बोझ सीधे-सीधे मध्यम वर्ग पर, नौकरीपेशा व्यक्तियों पर ही पड़ना है.


यही वह सामान्य स्थिति है जो किसी को भी साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है. इसे समझने के लिए किसी तरह से अर्थशास्त्री होने की, आर्थिक विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं है, किसी तरह के आर्थिक विश्लेषक होने की जरूरत नहीं है. एक सामान्य नागरिक अपनी सरकार से अपने लिए लाभ की, छूटों की, रियायत की, सुविधाओं की अपेक्षा करता है. यदि किसी कारण से कोई सरकार उसके लिए ऐसा करने में सक्षम नहीं होती है तो वह सरकार ऐसे नागरिकों की निगाह में अक्षम मानी जाती है. ऐसा ही कुछ वर्तमान केंद्र सरकार के साथ होता दिख रहा है. इसके बाद भी जनमानस को सिर्फ अपने लाभों की अपेक्षा को छोड़कर समग्र रूप में इस बजट को देखने की आवश्यकता है. जिस तरह विगत वर्षों में केंद्र सरकार या कहें कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा अपनी जीवटता दिखाते हुए नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया वह तारीफ योग्य है, ठीक वही स्थिति वर्तमान बजट को लेकर भी है क्योंकि यह बजट संभावित चुनावी वर्ष में आया है. यदि ऐसे में यह मतदाताओं को लाभान्वित करने के उद्देश्य से नहीं बनाया गया, इसका मतलब साफ है कि सरकार की नीयत राष्ट्र-विकास की तरफ है न कि वोट-विकास की तरफ. 

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