पता नहीं देश ज़्यादा जल्दी में है या कुछ देशवासी? वैसे कुछ की बजाय सभी किसी न किसी जल्दी में हैं. किसी को धन कमाने की जल्दी, किसी को अपने काम में तरक़्क़ी करने की जल्दी, किसी को सबकुछ पा लेने की जल्दी, किसी को सबकुछ सुधार देने की जल्दी, किसी को दोष मढ़ देने की जल्दी. इस जल्दी-जल्दी के खेल में बहुतेरे तो हड़बड़ी के शिकार हुए जा रहे हैं. इस हड़बड़ी में समय को समय से पहले खींचे ला रहे हैं. इस हड़बड़ी में उनको भान नहीं कि वे कर क्या रहे हैं? कह क्या रहे हैं? जल्दबाज़ी का खेल बिना सोचे-समझे खेला जा रहा है. इस खेल में अपने पक्ष को ही प्रामाणिक मानने को एक तरह की धौंस दी जा रही है और उसके लिए क्या सही, क्या ग़लत इस तरफ़ विचार भी नहीं किया जा रहा है.
जल्दबाज़ी में ख़ुद को यथोचित स्थापित करने की लालसा ने समाज में बराबर स्त्री-सम्बंधी मुद्दों को स्त्रियों, पुरुषों द्वारा उठाया जाता रहा है. समाज में स्त्रियों को लेकर एक तरह की धारणा यही बनी हुई है कि वो कमज़ोर है, पुरुष के अधीन है, शोषित है. इन सबके साथ-साथ यहाँ तक माना जा रहा है कि स्त्रियों पर किसी भी तरह के धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक कृत्यों पर लगने वाले प्रतिबंधों को पुरुषों द्वारा लगाया गया है. घर में, घर बाहर किसी भी स्त्रीगत स्थिति का एकमात्र ज़िम्मेवार सिर्फ़ पुरुष को माना-समझा गया. इन्हीं विचारों के चलते कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर अपने स्त्रीवादी आंदोलनों की धार को तेज़ करने के लिए हैप्पी टू ब्लीड जैसा कार्यक्रम चलाया गया था. इसका मक़सद महिलाओं के मासिक धर्म के प्रति समाज में बनी सोच के प्रति सकारात्मक माहौल बनाया जाना होना चाहिए था पर वही न होकर सबकुछ हुआ. एक से एक महिलाओं ने अपनी-अपनी फ़ोटो डाल कर समाज को बताने की कोशिश की कि उसको भी मासिक धर्म होता है. इन महिलाओं की अपने ब्लीड होने को लेकर हैप्पी वाली स्थिति सिर्फ़ फ़ोटो खींचने और सोशल मीडिया पर शेयर करने भर तक सीमित रही. इसके बाद पता नहीं वे कितने दिन बिना पैड के रहीं या फिर अब तक बिना पैड के ही रह रहीं हैं?
आंदोलन छेड़ने वाली ये आधुनिक, क्रांतिकारी महिलाएँ पैड धारण कर रहीं हैं ता नहीं, उनको ब्लीड से हैप्पीनेस हो रही है या नहीं ये उनका विषय पर हाल ही में सामाजिक सुधारों के स्वनामधन्य ब्राण्ड एम्बेसडर बने अभिनेता जी पैड आधारित फ़िल्म लेकर आ गए. फ़िल्म देखी तो नहीं हमने पर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इसमें महिलाओं के उन्हीं पाँच दिनों की बात होगी. पैड वाली समस्या के साथ-साथ सुधारवादी चर्चा भी हो सकती है. पैड की आड़ में महिलाओं की शारीरिक सुरक्षा की बात हो सकती है. मासिक धर्म को लेकर सामाजिक विमर्श की चर्चा भी हो सकती है. होनी भी चाहिए क्योंकि आज भी इस मुद्दे को पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं द्वारा ही नकारात्मक रूप से देखा जाता है. उन दिनों रसोई में जाना, पूजा करना, सामान छूना आदि प्रतिबंध महिलाएँ ही लगाती हैं. सामाजिक दृष्टि से एक सार्थक पहल, यदि इस फ़िल्म से हो रही है, को कुछ नौटंकीधारियों ने भटकाना शुरू कर दिया है. नामचीन महिलाएँ पैड लेकर फ़ोटो सोशल मीडिया पर शेयर करने लग गईं हैं. इस क्रांति से चर्चा होगी. अब परिवार में सब एकसाथ बैठकर अलग-अलग उम्र की महिलाओं के अलग-अलग आकार, अलग-अलग ब्राण्ड के पैड को पसंद कर सकेंगे. इस फ़िल्म ने पैड का प्रचार कर हैप्पी टू ब्लीड समर्थकों के ख़िलाफ़ काम किया है. समाज में भ्रम को फैलाया है. अब ब्लीड करती हुई महिला बिना पैड सार्वजनिक आए या फिर पैड को बाँधे? आख़िर प्राकृतिक, नैसर्गिक शारीरिक क्रिया पर प्रतिबंध क्यों? चर्चाओं को विस्तार देते हुए सभी को झिझक छोड़ परिवार की, पड़ोस की, कार्यालय की महिलाओं से जानकारी लेते रहना चाहिए. आख़िर समभाव के नाते उन पाँच दिनों के कष्टों को सिर्फ़ हैप्पी टू ब्लीड वाले, पैडमैन वाले ही क्यों जानें, उसके बारे में सब जानें, सब समझें. बस महिलाएँ ख़ुद तैयार कर लें इन पर चर्चा के लिए. क्या वे अभी हैं तैयार?
अब लगने लगा है कि हमने कुछ बातों को और कुछ शारीरिक अंगों और उनकी क्रियाओं को गोपनीय बना डाला है, इसी कारण प्रतिक्रियाएं हो रही हैं।
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