जिस तेज़ी से समाज बदल रहा है, उतनी तेज़ी से समाज में चर्चाओं के विषय में भी परिवर्तन हो रहा है. ये बदलाव किसी तरह की सामाजिकता के चलते आता हुआ नहीं है बल्कि इसके पीछे भी एक तरह का सेक्सुअल कारक काम कर रहा है. सामान्य रूप से देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे समाज और यहाँ के चंद जागरूक नागरिक समाजिक बदलाव लाने को सचेत हैं. वे इसी सचेतन दशा में इन चर्चाओं को आगे लाते रहते हैं. वैसे समाज में कहीं भी किसी बदलाव के लिए चर्चाओं का होना ज़रूरी है. समाज में ही क्या कहीं भी किसी तरह के परिवर्तन के लिए चर्चा होती ही है. घर में कोई काम होना है तो चर्चा तय है. किसी की पढ़ाई का मामला हो, किसी की शादी का मामला हो, किसी की ख़रीददारी होनी हो, किसी के रोज़गार का विषय हो सभी में चर्चा का होना मुख्य है. होना भी चाहिए क्योंकि चर्चा करने से सम्बंधित विषय पर उपयुक्त राय मिल जाती है या फिर सही राह दिख जाती है. वैसे भी समवेत चर्चा से निकले निर्णयों के आधार पर ठोस परिणाम मिलने की अपेक्षा रहती है. इस अपेक्षा पर वे चर्चाएँ ही खरी उतरती हैं जिनमें कुछ सार्थकता होती है. इधर कुछ समय से बदलाव के दौर से गुज़रता समाज अतिशय चर्चाबाज़ हो गया है. चंद सार्थक चर्चाओं के चारों तरफ़ निरर्थक चर्चाओं की भीड़ लगी हुई है. सबकी अपनी चर्चाएँ हैं, सबके अपने मंतव्य हैं.
चर्चाओं के चलते दौर लगातार परिवर्तित होकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की तरफ़ मुड़ जाते हैं. वैसे इधर चर्चाओं में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की अधिकता देखने को मिल रही है. चर्चा ही क्या दैनिक क्रियाकलाप भी इसी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गए हैं. स्त्री ने ये किया, उस महिला ने वो पहना, फ़लाँ लड़की का फ़लाँ लड़के के साथ चक्कर है, वो आदमी उस महिला को घूर रहा है, फ़लाँ लड़का रोज़ नई लड़की को घुमा रहा है, उस व्यक्ति ने उस महिला को छुआ, वो उसे देख मुस्कुराई, उसने उसे अजीब नज़रों से देखा आदि-आदि विषय तो रोज़ चर्चा में रहते ही हैं. इनके अलावा भी कुछ क्रांतिकारी विषय चर्चा में आने लगे हैं. इनके मूल में समाजिक बदलाव की बात कही जाती है, किसी गोपन विषय पर अगोपन होने की मंशा व्यक्त की जाती है, व्यक्तिगत विषयों पर खुली बहस करवाने की बात की जाती है. सोशल मीडिया पर एक हैशटैग आंदोलन शुरू होता है और फिर सब खुलकर चर्चाओं में शामिल होने लगते हैं. फिर चर्चा काम प्रदर्शन शुरू होने लगता है. कौन कितनी अश्लीलता से खुलकर सामने आ सकता है, इसकी होड़ लग जाती है. कौन कितना अशालीन लिख सकता है, इस पर ज़ोर दिया जाने लगता है. किसके विषयों में, भावाभिव्यक्ति में कामुकता अधिक समाहित हो सकती है, इसको प्रमुखता दी जाने लगती है. महिला-पुरुष सम्बन्धों के सार्थक, सकारात्मक विस्तार के लिए शुरू होने वाली चर्चाएँ देह-विमर्श के रूप में बदलने लगती हैं. किसके दाग़ अच्छे हैं, किसकी दैहिक संतुष्टि अधिक है, कौन कितने मिनट टिक सकता है आदि चर्चा के विषय बनने लगते हैं.
स्त्री हो या पुरुष, उसके सम्बन्धों को जब तक देह की तराज़ू पर तौला जाता रहेगा तब तक खुला विमर्श कामुकता, अश्लीलता की कहानी ही लिखता रहेगा. जिस तरह स्त्री देह की समस्या को लेकर खुली चर्चा की वकालत की जा रही है, उससे क्या लगता है कि सारी समस्या सुलझ जाएगी? क्या लगता है कि आज के तकनीकी, इंटरनेट युग में लोगों को माहवरी, उसकी समस्या, स्त्री की परेशानी के बारे में जानकारी न होगी? क्या लगता है कि ऐसे लोग पैड के बारे में न जानते होंगे? क्या लगता है कि खुली चर्चा से सभी एक-दूसरे की मदद करने लगेंगे उन पाँच दिनों में? क्या खुली चर्चा की सार्थकता तब होगी जब पारिवारिक मर्यादा को भूल लोग आपस में उन दिनों की चर्चा करने लगेंगे? आधुनिकता के कथित आवरण को ओढ़कर हम सोचने लगे हैं कि खुले दिमाग़ और विचार के हो गए हैं. जहाँ आज भी परीक्षा ड्यूटी के दौरान किसी पुरुष शिक्षक द्वारा लड़की के हाथों नक़ल पर्ची छीनना छेड़खानी माना जाता हो, बाज़ार में किसी सहायता के लिए महिला पुकारना या उसकी तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाना फ़्लर्ट करना समझा जाता है, ज़हम महिला को देखना भी अपराध की श्रेणी में आता हो वहाँ ख़ुद महिलाओं से उनके पीरियड्स पर, पैड पर, उसके दाग़ पर खुली चर्चा की अपेक्षा करना समझा जा सकता है. ऐसे लोगों से, जो इस तरह के विषयों पर खुली चर्चा का दम भरते हैं, एक सवाल कि किसी ऐसी युवती जो अपने काम करने में सक्षम नहीं है, किसी परिस्थिति में उसके पिता, भाई द्वारा इसके पैड को बदलना-पहनाना सम्भव है?
चर्चाएँ हों, खुलकर हों, इन्हीं विषयों पर हों पर उनके उद्देश्य को भटकाया न जाए, भटकने न दिया जाए. और ऐसा हाल-फ़िलहाल सम्भव नहीं दिखता है.
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