11 फ़रवरी 2018

शर्म, संकोच की दीवार गिराना होगी पहले


पैड मैन जैसी फिल्मों को सामाजिक परिवर्तन का वाहक बताया जा रहा है. पता नहीं ये बॉक्स ऑफिस पर फिल्म के चलने के कारण है या फिर समाज के लोगों को इसके विषय की अहमियत समझ आ गई है? इस बारे में एक बात साफ़ है कि समाज में इसे महज फिल्म के रूप में ही देखा जा रहा है और इसको तारीफ के लायक महज इसलिए बताया जा रहा है कि इसके द्वारा एक ऐसे विषय को सामने लाया गया जो कि अभी तक शर्म का विषय माना जाता है. ऐसा न केवल पुरुष वर्ग में है वरन खुद महिलाओं में भी अपने पैड को लेकर शर्म, घृणा जैसा माहौल बना हुआ है. इधर पैड मैन के द्वारा समाज में सन्देश देने की कोशिश की जा रही है वहीं महिलाओं में इस विषय को लेकर एक अजब तरह की स्थिति देखने को मिल रही है. अभी तक जिस तरह के भारतीय समाज की, परिवारों की संकल्पना देखने को मिली है उसे देखकर सहज नहीं है किसी भी महिला के लिए ऐसे किसी भी विषय पर चर्चा करना जिसे गोपनीय माना जाता रहा है. यहाँ वे महिलाएं अपवाद हैं जो अपने उन पांच दिनों के ब्लीड को भी गर्व से सबको दिखाने को आतुर बैठी हैं.

ऐसे किसी भी विषय का स्वागत होना चाहिए जो किसी भी इन्सान की जीवन-शैली में सुधार लाते हों या ला सकते हों. कुछ इसी तरह का विषय इस फिल्म का है. आज भी बहुत सी जगहें ऐसी हैं, बहुत सी महिलाएं ऐसी हैं जो अपनी माहवारी के समय में अत्यंत कष्ट का जीवन व्यतीत करती हैं. बहुतेरी महिलाएं आर्थिक कारणों से नैपकिन से वंचित रहती हैं. ऐसी महिलाएं गंदे कपड़ों का सहारा लेकर अपने स्वास्थ्य से ही खिलवाड़ करती हैं. इसके अलावा बहुतेरी महिलाओं को अपने उन पांच दिनों के बारे में गंभीरता से जानकारी नहीं होती है. इसके चलते उन्हें सामाजिकता का, धार्मिकता का, पारिवारिकता का नाम लेकर बहुतेरे कार्यों से दूर रखा जाता है. ये स्थिति उन बच्चियों के लिए बहुत ही जटिल हो जाती है जो इसका शुरुआती परिचय प्राप्त कर रही होती हैं. आज के तकनीकी भरे समय में समय से पहले बालिग़ होती बच्चियों को माहवारी, उनके सुरक्षा उपायों के बारे में आसानी से पता रहता है मगर वे बच्चियाँ अवश्य ही असमंजस में रहती हैं जो ग्रामीण अंचलों से जुड़ी हैं. हालाँकि ऐसे विषयों के प्रति सरकारी उपक्रम और गैर-सरकारी उपक्रमों द्वारा बहुत समय से उपाय क्रियान्वित किये जा रहे हैं मगर विषय को महिलाओं से सम्बंधित होने के कारण, उनकी देह की क्रिया से सम्बंधित होने के कारण उनमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि खुद लेखक भी कई वर्ष पूर्व इस तरह के एक कार्यक्रम में सहभागी रहा है और ग्रामीण अंचलों के विद्यालयों की बात अलग है, शहरी क्षेत्र के विद्यालयों, महाविद्यालयों में इस विषय पर जागरूकता लाने में बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ा था.

आज जबकि इस विषय पर फिल्म बन चुकी है. उसकी चर्चा जोरों पर है. ऐसे में सबके लिए आवश्यक है कि इस विषय पर पूरी गंभीरता से बात हो. लेकिन क्या भारतीय परिदृश्य में ऐसा पूरी तरह से संभव है? क्या आज के परिवेश में मध्यम वर्गीय परिवारों में आसान है किसी लड़की के लिए इस विषय पर अपने पिता या भाई से चर्चा करना? समझने वाली बात ये है कि पारिवारिक अवधारणा से इतर अभी मध्यम स्तर के नगरों, शहरों, कस्बों तक में ऐसी मानसिकता विकसित नहीं हो सकी है कि सहकर्मी महिला-पुरुष इस विषय पर खुलकर बात कर सकने में सहजता महसूस करते हों. विद्यालयों, महाविद्यालयों तक में स्त्री-पुरुष सम्बन्धी विषयों पर दोनों तरफ से बातचीत में शर्म, संकोच देखने को मिलता है. जब तक स्त्री-पुरुष आपस में शर्म, संकोच त्यागकर ऐसे विषयों पर चर्चा को आम नहीं करेंगे तब तक फ़िल्में हिट होती रहेंगी, समाज में चर्चा का विषय बनती रहेंगी, लोगों की वाहवाही लेती रहेंगी मगर नतीज वहीं का वहीं रहेगा.  

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