आम दिनों की तरह मित्र-मंडली बैठी हुई
थी. रात का समय, मौसम में ठंडक, हवा में भी नमी महसूस की जा रही थी. गप्पबाजी के
साथ गरमा-गरम का मूड बना तो खाने-पीने की घरेलू व्यवस्था के साथ-साथ बगिया की सूखी
पड़ी टहनियों, घास, बेकार जलावन को इकठ्ठा करके कैम्प फायर जैसा अनुभव लेने का
प्रयास होने लगा. इस पूरी मौज-मस्ती में अनेकानेक बिन्दुओं पर चर्चा होती रही.
सहमति-असहमति के स्वर बनते-बिगड़ते रहे पर दोस्ती पर किसी तरह की आँच नहीं आई. आँच यदि
हम दोस्तों के बीच गर्मी देती उस आग में जब भी कम पड़ती दिखती तो कोई न कोई उसमें
लकड़ी डाल कर, फूंक की तेजी दिखाकर उसे बढ़ा देता. बातचीत के अनेक बिन्दुओं के बीच
सोशल मीडिया को आना ही था. ऐसा आजकल संभव हो नहीं पा रहा है किसी के लिए कि बातचीत
हो और उसमें सोशल मीडिया न घुस जाए. सो, ऐसा यहाँ भी हुआ, सोशल मीडिया यहाँ भी
घुसा और फिर उसमें भी अनेक पक्षों को स्वीकार-अस्वीकार किया गया.
इसी विमर्श के बीच एक मित्र ने अपनी
राय व्यक्त की कि उनकी राजनैतिक पोस्ट पर जितने अधिक लाइक या फिर कमेंट आ जाते
हैं, उतने लाइक या कमेंट देश सम्बन्धी, सेना सम्बन्धी किसी पोस्ट पर नहीं आते.
फेसबुक पर सक्रिय बहुत से मित्रों के साथ निश्चित ही ऐसी समस्या किसी और भी विषय
को लेकर हो सकती है. न जाने कितने सार्थक विषय किसी एक अनावश्यक विषय पर लिखी गई
पोस्ट के अत्यधिक लाइक और कमेंट के साये में गुम हो जाते हैं. असल में वर्तमान में
देखने में आ रहा है कि फेसबुक पर पाठकों से अधिक आलोचना करने वाले हैं. किसी भी
विषय पर पूर्वाग्रही राय बनाकर उस पर अपनी राय देने वाले हैं. ऐसी सोच वालों ने
किसी न किसी रूप में अपना एक गुट जैसा भी बना रखा है जो किसी व्यक्ति विशेष की
पोस्ट पर, किसी विषय विशेष की पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया जैसी नहीं देता वरन उस पर
हमला जैसा करता है. ज़ाहिर सी बात है कि प्रतिक्रिया होने पर तो विमर्श की स्थिति
उत्पन्न होती है किन्तु जब हमला हुआ हो तो सिवाय हमलावर बनने के, हमले के
प्रत्युत्तर में हमला करने के और कोई उपाय सामने वाले के पास भी नहीं होता है.
हमला के ऊपर हमला की इसी स्थिति ने बहुत सारे अच्छे विषयों को कहीं गुम कर दिया
है.
आखिर ये समझ से परे है कि हम सभी
तर्क-वितर्क के मामले में एकदम से आक्रामक क्यों हो जाते हैं? आखिर हम सभी अपने
नकारात्मक विचारों को सामने वाले की सकारात्मकता पर हावी क्यों होने देना चाहते
हैं? आखिर प्रत्येक स्थिति में हम सभी अपने ही विचारों की सर्वस्व स्वीकार्यता
क्यों चाहते हैं? ऐसे बहुत से सवाल खड़े हो सकते हैं, यदि उन पर गौर किया जाये.
विचारों के आदान-प्रदान से, तर्क-लगा है जैसे कि हम सभी का तर्क-वितर्क करना सिर्फ
अपने आपको ही सिद्ध करने के लिए होने लगा है. हम सभी का आपस में वैचारिक आदान-प्रदान
करना कम, एक-दूसरे पर अपनी बुद्धिमत्ता को स्थापित करना रह गया है. शायद ऐसा ही
कुछ राज्यों में आपस में, वैश्विक स्तर पर दो देशों के मध्य आपस में होते दिख रहा
है. वैसे देखा जाये तो समूचा विश्व आजकल सोशल मीडिया के फॉर्मेट में ही दिखने लगा
है. सबकी एपीआई-अपनी पोस्ट, सबके अपने-अपने लाइक, सबके अपने-अपने कमेंट और फिर उन
पर सबके अपने-अपने तर्क-वितर्क-कुतर्क. वैश्विक मानसिकता अब घर-घर में,
व्यक्ति-व्यक्ति में दिखाई दे रही है. देखा जाये तो अब हम वास्तविक रूप में सम्पूर्ण
विश्व को अपने अन्दर समाहित कर सके हैं.
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