इधर बहुत सालों से देश में योगा–योगा की
धूम मची हुई है. ऐसी धूम तो उस समय धूम फिल्मों की भी नहीं मची थी. जिसे देखो वो
योगा-योगा करते घूम रहा है. आश्चर्य तो तब होता है जबकि हमारे देश का योग विदेश की
यात्रा के बाद जब इसी देश में योगा बनकर लौटा तो प्रसिद्द हो गया. इसी योग को योगा
बनाने के बाद न जाने कितने दाढ़ी वाले, न जाने कितने बिना दाढ़ी वाले लोग बाबा बन
गए, योगाचार्य बन गए. इन्हीं के बीच एक दाढ़ी वाले बाबा ने आकर योगा को फिर से योग
में बदला और जन-जन में प्रतिष्ठित किया. ये और बात है कि आज के पार्टी-विरोध के
चलते, व्यक्ति-विरोध के चलते वे बाबा जी भी विरोध का शिकार हो गए. इस विरोध के बीच
उनके उत्पाद भले ही विवादित रहे हों मगर उनका योग बिलकुल भी विवादित नहीं हुआ.
नगर-नगर, शहर-शहर, गाँव-गाँव,
मोहल्ले-मोहल्ले, गली-गली योग की कक्षाएँ खुल गईं, योगाचार्य पैदा हो गए.
सुबह-शाम, दोपहर-रात योग की कक्षाएँ चलने लगीं. जो लोग कक्षाओं में न जा सके उनके
लिए शिविर लगाये जाने लगे. योग आतुर लोगों के लिए उनकी मनोच्छा को देखकर कभी सुबह
में तो कभी शाम में योग के शिविर, योग की कक्षाएँ लगाई जाने लगीं. ऐसे-ऐसे लोग योग
को सिखाने को सामने आने लगे जिनका योग के आसनों से तो सम्बन्ध रहा मगर वे सब योग
के आहार-विहार से कोसों दूर रहे. आश्चर्य हुआ न आपको? होना भी चाहिए क्योंकि हमें
भी आश्चर्य हुआ था उस समय जबकि पाता चला था कि योग का सम्बन्ध सिर्फ योग से
सम्बंधित आसनों से नहीं है बल्कि योग से जुड़े हुए आचार-विचार, खान-पान से भी है.
अब आपको शायद कुछ समझ आया हो. आपने भी देखा होगा कि योग से बहुत गहराई से जुड़े
होने के बाद भी बहुत से लोगों को उन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है जिनसे
योग से बहुत दूर रहने वालों को सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में न सिर्फ वे व्यक्ति
आलोचना का शिकार बनते हैं बल्कि हमारा समृद्ध योग भी आलोचना का शिकार बनता है.
यहाँ आकर एक बात विशेष रूप से आप सबको
ध्यान रखने की आवश्यकता है कि न तो किसी बाबा ने हमारे योग को समृद्ध बनाया है, न
किसी व्यक्ति ने, न किसी शिविर ने. हमारा योग सदैव से उन्नत, समृद्ध रहा है बस
हमने ही उसका गलत उपयोग करना शुरू कर दिया था. असल में हम सबने मान लिया है कि योग
करने के बाद सभी बीमारियाँ, सभी दैहिक बुराइयाँ दूर हो जाती हैं. होता है ऐसा ही मगर
उसके लिए योग से जुडी हुई बातों का पूरा ख्याल भी रखना होता है. योग एक शारीरिक
क्रिया मात्र नहीं वरन एक प्रक्रिया है. इस प्रकिया में न केवल शारीरिक व्यायाम
बल्कि खान-पान का भी महत्त्व है. ये अपने आपमें एक विशेष बात होगी कि किसी व्यक्ति
को योग के आसनों में, उसकी निरंतरता में कितनी विशेषज्ञता हासिल है, इसके उलट उससे
भी कहीं महत्त्वपूर्ण ये है कि उसी व्यक्ति को योग के आसनों के सापेक्ष उसके
खान-पान, आहार-विहार आदि को लेकर कितनी विशेषज्ञता हासिल है. देखने में आया है कि
योग के आसनों, क्रियाओं आदि में समर्थ व्यक्ति खान-पान में, आहार-विहार में, संयम
में कमजोर हो जाता है. ऐसे व्यक्तियों के लिए योग निरोग का नहीं वरन भोग का माध्यम
होता है. असल में वे लोग योग के माध्यम से अपनी उन्हीं इन्द्रियों को सक्षम करना चाहते
हैं, समर्थ करना चाहते हैं जो शिथिल होने लगती हैं. ऐसे लोगों के लिए योग सिर्फ
भोग का माध्यम बनता है. आज योग की कक्षाओं में ऐसे ही लोगों की बहुतायत है जो किसी
न किसी रूप में अपनी किसी न किसी इन्द्रिय समस्या से दो-चार हो रहे हैं.
हम सभी को आज समझने की आवश्यकता है कि आज
हमारे लिए योग निरोग होने का माध्यम बनना चाहिए न कि भोग का. जब तक हम योग को
सिर्फ इसलिए अपनाते रहेंगे कि उसके द्वारा हम अपनी उन शिथिल हो चुकी इन्द्रियों को
सशक्त बनायें जिनके माध्यम से हमें जीवन में भोग करना है तो योग ऐसे लोगों के लिए
निष्फल है, निष्प्रयोज्य है. ऐसे लोग ही योग को गलत सिद्ध करने में लगे हैं. हम
सभी को ध्यान रखना होगा कि योग भोग को पाने की सीढ़ी नहीं बल्कि निरोग रहने का
माध्यम है. ऐसे में हमारे लिए योग महज शारीरिक क्रियाओं को करना भर नहीं बल्कि
उसकी वैचारिकी को मानना भी है. योग के साथ-साथ उसके आहार-विहार, उसके विचार को
आत्मसात करना ही योग की सफलता है. यदि योग की शारीरिक क्रियाओं के साथ उसकी मानसिक
अवस्था को हम आत्मसात नहीं कर पाते हैं तो योग हमारे लिए सकारात्मक स्थिति उत्पन्न
नहीं कर सकेगा.
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