समाजवादी पार्टी के वर्तमान विवाद जिस तरह से
पारिवारिक विवाद के साथ-साथ संगठन और सरकार का विवाद दिखाया जा रहा है, असलियत
उससे कहीं अलग समझ आती है. प्रथम दृष्टया देखने पर ऐसा ही प्रतीत हो रहा है जैसे
कि ये मंत्रियों का, मंत्रिमंडल का, सरकार का विवाद न होकर विशुद्ध पारिवारिक
विवाद है. समूचा घटनाक्रम इस तरह से सामने लाया जा रहा है कि देखने वाले को ये
चाचा-भतीजा, बाप-बेटे, भाई-भाई का विवाद समझ आये. यदि गम्भीरता से समाजवादी पार्टी
की सरकार के वर्तमान कार्यकाल, उसकी कार्यशैली, मंत्रियों से लेकर सामान्य
कार्यकर्त्ता के कार्यों का आकलन, अध्ययन किया जाये तो सहज रूप में इस विवाद के
पीछे बहुत कुछ दिखाई दे जाता है. लगभग एक माह पहले स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
द्वारा भ्रष्टाचार के चलते एक मंत्री गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बाहर करने
के साथ-साथ अपने ही चाचा शिवपाल यादव के समस्त विभागों को छीन लिया गया था. उसके
बाद के नाटकीय घटनाक्रम के पश्चात् न केवल शिवपाल यादव के तमाम विभागों की वापसी
हुई वरन मुख्यमंत्री द्वारा बर्खास्त किये गए मंत्री की भी मंत्रिमंडल में वापसी
हुई. ये अपने आपमें लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए अत्यंत दुखद एवं शर्मनाक पहलू
था कि मुख्यमंत्री द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में बर्खास्त किये गए व्यक्ति की
वापसी उसे दोषमुक्त करवाने के बजाय सड़कों पर उतर कर करवाई गई.
उस शर्मनाक अवसर के गवाह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
बने और उन्होंने अपनी लोकप्रियता के ग्राफ में कुछ गिरावट अवश्य ही महसूस की. उस मौके
पर अखिलेश यादव को माननीय राज्यपाल महोदय को अपना इस्तीफ़ा सौंपकर विधानसभा भंग करके
चुनाव की सिफारिश कर देनी चाहिए थी. यही वो बिंदु था जो न केवल उनकी राजनैतिक छवि
को और मजबूत करता वरन कहीं न कहीं उन्हीं के सहारे आगामी विधानसभा चुनाव में
समाजवादी पार्टी की नैया भी पार लगा सकता था. लेकिन चूक हो चुकी थी. समाजवादी
सरकार के विगत साढ़े चार वर्षों के कार्यकाल पर जनता की असंतुष्टि की खबर समाजवादी
आलाकमान के पास न हो, ऐसा संभव नहीं. ऐसे में समाजवादी पार्टी आलाकमान की तरफ से
इस भूल सुधार करने के अलावा और कोई चारा बचता भी नहीं था. ऐसे में शिवपाल यादव का
अचानक ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त किया जाना आश्चर्य का विषय है. उनके द्वारा इधर
ऐसा कौन सा अपराध किया गया था जिसके चलते उनको बर्खास्त किया गया? इस बर्खास्तगी
के साथ अन्य चार की बर्खास्तगी भी सवालिया निशान लगाती है. विवाद के नियोजित होने के
आभास को तब और बल मिलता है, जबकि खुद मुख्यमंत्री द्वारा पूर्व में हटाये गए
मंत्री गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल में यथावत रखा जाता है.
उत्तर प्रदेश सरकार के प्रति जनता में एक तरह की
असंतुष्टि, एक तरह की नाराजगी, एक तरह का आक्रोश है. इसके पीछे उसके कार्यों से
ज्यादा मंत्री स्तर से लेकर कार्यकर्त्ता स्तर तक की कार्यशैली जिम्मेवार है. इसके
बाद भी जनमानस में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के प्रति सहानुभूति की लहर है. लोगों
में ऐसा विश्वास है कि वे युवा होने के नाते अच्छा काम कर सकते थे किन्तु
पारिवारिक और पार्टी के बुजुर्गों के दवाब में ऐसा नहीं कर सके. पार्टी आलाकमान
कहीं न कहीं जनता की इस सहानुभूति को अपने पक्ष में वोट के रूप में परिवर्तित करना
चाहता है. हालिया विवाद इसी पृष्ठभूमि से निकल कर सामने खड़ा हुआ है. पिछले
स्वर्णिम अवसर कर की गई चूक की भरपाई के साथ-साथ आम जनमानस में अखिलेश के प्रति
संवेदनात्मक वातावरण का निर्माण भी अदृश्य रूप से किया जा रहा है. इसी रणनीति के
अंतर्गत अखिलेश का लालन-पालन उनकी बुआ के द्वारा किया जाना, स्वयं उन्हीं के
द्वारा अपना नाम रखना, सौतेली माता का अपने पुत्रमोह में होना, चाचा शिवपाल यादव
से नाराजगी आदि विषयों को इसी समय उठाया गया है.
जैसा कि अभी तक की स्थितियाँ सामने हैं, उसे देखकर
वर्तमान संकट पूर्वनियोजित लग रहा है और यदि वाकई ऐसा है तो अखिलेश के नई पार्टी
बना लेने से समाजवादी पार्टी को किसी भी रूप में नुकसान नहीं होने वाला है. नई
पार्टी बनाये जाने से जहाँ समाजवादी का वो परंपरागत मतदाता जो मुलायम सिंह के नाम
पर एकजुट होता है वो निश्चित रूप से समाजवादी पार्टी को ही वोट करेगा. ऐसा मतदाता
जो समाजवादी पार्टी की वर्तमान कार्यप्रणाली से असंतुष्ट है वो तथा ऐसा मतदाता जो
अखिलेश के प्रति सहानुभूति रखता है वो निश्चित रूप से अखिलेश के पक्ष में मतदान
करेगा. इसके अलावा अखिलेश के नई पार्टी बनाये जाने से उन मतदाताओं को किसी तरह की
समस्या महसूस नहीं होगी जो मुलायम सिंह को, समाजवादी पार्टी को कारसेवकों पर
गोलियाँ चलाये जाने का दोषी मानते हैं. यदि अखिलेश ऐसी स्थितियों में सीट जीत ले
जाते हैं तो यकीनन सत्ता के दावेदारों में शामिल हो सकते हैं. युवा, स्वस्थ सोच,
स्वतंत्र निर्णय लेने की सम्भावना, समाजवादी के तथा परिवार के बुजुर्गों के
नियंत्रण से बाहर रहने, विकास के प्रति नजरिया आदि होने के चलते उन्हें अन्य दूसरे
दलों का समर्थन भी मिल सकता है. इसके साथ-साथ यदि वर्तमान संकट पारिवारिक स्तर पर
नियोजित है तो फिर समाजवादी पार्टी का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष समर्थन भी उनके लिए
संजीवनी का काम कर सकता है.
फ़िलहाल तो समाजवादी पार्टी में समझौते जैसी स्थिति
के बाद भी समझौते के आसार दिख नहीं रहे हैं. भले ही मुलायम सिंह ने अखिलेश को
मुख्यमंत्री बने रहने के संकेत कर दिए हैं किन्तु जिस तरह से उन्होंने अमर सिंह,
शिवपाल यादव का समर्थन किया है उससे स्पष्ट है कि ये झींगामुश्ती बहुत लम्बे समय
तक नहीं चलेगी. इस विवाद के सहारे पार्टी आलाकमान अपने मंत्रियों, विधायकों,
कार्यकर्ताओं, मतदाताओं का लिटमस टेस्ट भी कर ले रहा है. जिसके आधार पर चुनाव से
पहले अखिलेश के प्रति जन्मी मतदाताओं की, जनता की सहानुभूति को वोट में परिवर्तित
किया जायेगा, भले ही इसके लिए परदे के पीछे से अखिलेश को नई पार्टी बनाये जाने के
रास्ते क्यों न खोले जाएँ.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें