17 अक्टूबर 2016

शरीयत की आड़ में संविधान का विरोध

समान नागरिक संहिता के संबंध में विधि आयोग ने एक प्रश्नावली तैयार की है. सोलह बिन्दुओं की इस प्रश्नावली के माध्यम से विवाह, सम्बन्ध विच्छेद, महिलाओं के संपत्ति पर अधिकार, अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विवाह करने वाले दम्पत्तियों की सुरक्षा, विवाह पंजीकरण, धार्मिक स्वतंत्रता आदि बिन्दुओं पर भारतीय जनता से रायशुमारी करवाई जा रही है. किसी भी रूप में इस प्रश्नावली को अंतिम नहीं माना जा रहा है, इसके बाद भी विधि आयोग की इस पहल का तमाम मुस्लिम संगठनों ने विरोध करना शुरू कर दिया है. इसमें सबसे आगे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है. सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद केंद्र सरकार ने विधि आयोग से समान नागरिक संहिता लागू करने की समीक्षा करने को कहा है. ऐसा किसी धार्मिक तुष्टिकरण अथवा किसी राजनीति के अंतर्गत नहीं किया जा रहा वरन इसके पीछे गत वर्ष अक्टूबर माह में एक ईसाई युवक द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका है, जिसमें ईसाइयों के तलाक अधिनियम को चुनौती दी गई थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान लेते हुए सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने को कहा था. ईसाई युवक द्वारा दायर याचिका और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पश्चात् केंद्र की पहल से मुसलमानों में प्रचलित तलाक सम्बन्धी और शादी सम्बन्धी प्रक्रिया का मुद्दा भी अदालत में आ गया. 


समान नागरिक संहिता का सर्वाधिक विरोध मुस्लिमों द्वारा किया जा रहा है. वे इसे अपने मजहबी कृत्यों में हस्तक्षेप बताते हैं. देखा जाये तो कहीं न कहीं इस संहिता से मुस्लिम महिलाओं को आज़ादी मिल सकेगी. शायद यदि मुस्लिम पुरुष नहीं चाहते हैं. जिस तीन तलाक का मामला आजकल चर्चा में है उसके पीछे की कहानी कुछ ऐसी है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत कोई पति दो मासिक धर्मों के बीच की अवधि, जिसे तुहर के नाम से जाना जाता है, के दौरान अथवा सहवास के दौरान तुहर में या फिर एक साथ तीन बार तलाक कहकर पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद कर सकता है. तलाक के बाद जहाँ एक तरफ मुस्लिम पुरुष फौरन शादी कर सकता है वहीं मुस्लिम महिला को चार महीने दस दिन यानि इद्दत (एक प्रकार की निर्धारित अवधि) तक इंतजार करना होता है. इस दौरान यह भी देखा जाता है कि महिला गर्भवती तो नहीं है. यदि वह गर्भवती नहीं है तो इद्दत पीरियड के बाद वह दोबारा शादी कर सकती है. इसके उलट यदि वह मुस्लिम स्त्री गर्भवती पाई जाती है तो गर्भस्थ शिशु को जन्म देने के बाद ही दोबारा शादी कर सकती है. हिन्दू मैरिज ऐक्ट के अंतर्गत हिन्दू दम्पत्ति शादी के बारह महीने बाद आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दाखिल कर सकते हैं. अगर पति को लाइलाज बीमारी हो, वह शारीरिक संबंध बनाने में अक्षम हो तो शादी के फौरन बाद भी तलाक की अर्जी दी जा सकती है. ईसाई समुदाय में शादी के दो साल बाद ही तलाक की अर्जी दाखिल की जा सकती है, उससे पहले नहीं. ईसाई दम्पत्ति को तलाक़ के पूर्व दो वर्ष की अवधि न्यायिक रूप से अलग रहकर गुज़ारनी होती है, जबकि हिन्दुओं तथा अन्य ग़ैर-ईसाइयों के लिए यह अवधि साल भर की ही है. स्पष्ट है कि हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई के लिए अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं. इसी विभिन्नता के चलते गत वर्ष एक ईसाई युवक द्वारा दायर याचिका के बाद समान नागरिक संहिता का मामला पुनः चर्चा में आया.

ये पहली बार नहीं है बल्कि वर्ष 2003 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 118 को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को समान नागरिक संहिता के निर्माण के सम्बन्ध में अपनी राय प्रेषित की थी. संविधान की प्रस्तावना और नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि सरकार सभी के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करे. आज़ादी के तुरंत बाद नवम्बर 1948 में संविधान सभा की बैठक में समान नागरिक संहिता पर जमकर बहस हुई थी. तत्कालीन बहस में इस्लामिक चिन्तक मोहम्मद इस्माईल, जेड एच लारी, बिहार के मुस्लिम सदस्य हुसैन इमाम, नजीरुद्दीन अहमद सहित अनेक मुस्लिम नेताओं ने इस विषय पर भीमराव अम्बेडकर का विरोध किया था. तब डॉ० अम्बेडकर ने समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए कहा था कि देश में एक आपराधिक विधि संहिता है, दंड विधान में एक विधि है, संपत्ति हस्तांतरण का एक विधान है. जबरदस्त विरोध के बीच हुए मतदान में डॉ० अम्बेडकर का प्रस्ताव विजयी हुआ. मुस्लिम सदस्य बुरी तरह पराजित हुए और संविधान के अनुच्छेद 44 में बहुमत की राय से समान नागरिक संहिता को लागू किये जाने सम्बन्धी विधान लाया गया. इसके बाद भी बँटवारे की त्रासदी झेल रहे मुसलमानों के प्रति सौहार्द्र भाव दर्शाते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करने का विचार कुछ वर्षों के लिए टाल दिया गया. समय गुजरने के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरता बढ़ती गई, मुस्लिम तुष्टिकरण बढ़ता गया और समान नागरिक संहिता की राह संकीर्ण होती गई. इसी विरोध और कट्टरता के चलते 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का जन्म हुआ. तबसे यह संस्था समान नागरिक संहिता का विरोध करते हुए शरीयत को संविधान और कानून से ऊपर बताती-मानती है. यही विरोध आज और भी तीव्रतम रूप में दिखता हुआ राजनैतिक रंग पकड़ने लगा है.

इसके विरोध में दिया जाता यह तर्क तो अत्यंत हास्यास्पद है कि समान नागरिक संहिता की बात भाजपा अथवा हिन्दुओं द्वारा महज इस कारण की जाती है क्योंकि वे मुसलमानों की चार शादी और तलाक देने की सुविधा को आबादी बढ़ाने वाला मानते हैं. यहाँ सवाल उठता है कि क्या ये प्रासंगिक है कि एक महिला को मात्र तीन बार तलाक बोलकर हमेशा के लिए बेघर कर दिया जाये, जैसा कि शाहबानो केस में हुआ? ये समझने का विषय है कि आज़ादी के तुरंत बाद तो भाजपा नहीं थी, तब हिंदुत्व साम्प्रदायिकता जैसी कोई अवधारणा भी नहीं थी तब उस समय क्यों इसका विरोध किया गया? एक देश, एक प्रधान, एक राष्ट्रपति, एक संविधान, एक ध्वज के बाद भी एक संहिता का विरोध क्यों किया गया? सभी नागरिकों के एक अधिकार हो जाने का विरोध क्यों? समझने वाली बात है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड स्वयं कुरान की बहुत सी बातों का पालन नहीं करता है. कुरान में बाल विवाह प्रतिबंधित है जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार ‘ख्याल-उल-बलूग’ अर्थात बाल विवाह का प्रावधान है. कुरान के अनुसार तलाक बिना अदालती हस्तक्षेप के संभव नहीं जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अनुसार मुस्लिम मर्द को अपनी मर्जी से तलाक लेने का अधिकार है. कुरान विधवा विवाह और पुनर्विवाह को मान्य करती है जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा प्रतिबंधित करता है. ऐसे एक-दो नहीं अनेक उदाहरण हैं जिनके आधार पर न ही शरीयत का सम्पूर्ण पालन होता दिखता है न ही कुरान और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में समन्वय दिखता है. ऐसे में ये लोग किस शरीयत की दुहाई देते हुए समान नागरिक संहिता का विरोध करने में लगे हैं?

आखिर कुछ कठमुल्लों की आवाज़ पर, चन्द गैरजिम्मेवार राजनैतिक दलों के विरोध के चलते कब तक देश के अपरिहार्य विधान को लागू होने से रोका जाता रहेगा? समान नागरिक संहिता किसी एक समुदाय विशेष के विवाह अथवा तलाक की बात नहीं करती वरन एक महिला को भी नागरिक के रूप में अधिकार प्रदान किये जाने की बात करती है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता इसकी है कि सभी लोग हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि धार्मिक मानसिकता से ऊपर उठकर विशुद्ध भारतीय नागरिक की मानसिकता से विचार करें. देश के, नागरिकों के विकास के लिए एक ऐसी संहिता का निर्माण करने में योगदान दें जो सभी समुदायों पर समान रूप से लागू हो, सभी को भारतीयता की पहचान कराती हो.


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