11 अक्तूबर 2016

अपने अन्दर का रावण मारें

विजयादशमी का पर्व पूरे जोश-उत्साह के साथ मनाया गया. दस सिर के रावण का पुतला फिर जलाया गया. फिर बुराई पर अच्छाई की विजय, असत्य पर सत्य की विजय का सन्देश समाज में प्रसारित-प्रचारित किया गया. साल-दर-साल विजयादशमी पर रावण का पुतला फूँकने के बाद भी समाज से न तो बुराई दूर हो सकी और न ही असत्य को हराया जा सका है. समाज में सांकेतिक रूप से सन्देश देने के लिए प्रतिवर्ष बुराई, अत्याचार के प्रतीक रावण को सत्य और न्याय के प्रतीक राम के हाथों मरवाया जाता है इसके बाद भी समाज में असत्य, हिंसा, अत्याचार, बुराई आनुपातिक रूप से बढ़ती दिखाई देती है. सांकेतिक पर्व महज संकेत बनकर रह जाता है. इस पावन पर्व पर इंसानी बस्तियों में छद्म रावण को, छद्म अत्याचार को समाप्त करके सभी लोग अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं. आज आवश्यकता रावण के पुतले को फूँकने की सांकेतिकता से साथ-साथ व्यावहारिक रूप में अपने भीतर बैठे अनेकानेक सिरों वाले रावण को जलाने की है.



संभव है कि सुनने में बुरा लगे मगर कहीं न कहीं हम सभी में किसी न किसी रूप में एक रावण उपस्थित रहता है. इसका मूल कारण ये है कि प्रत्येक इन्सान की मूल प्रवृत्ति पाशविक है. उसे परिवार में, समाज में, संस्थानों में विभिन्न तरीके से स्नेह, प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारा आदि-आदि सिखाया जाता है जबकि हिंसा, अत्याचार, अनाचार, बुराई आदि कहीं, किसी भी रूप में सिखाये नहीं जाते हैं. सीधी सी बात है कि ये सब दुर्गुण उसके भीतर जन्म के साथ ही समाहित रहते हैं जो वातावरण, देशकाल, परिस्थिति के अनुसार अपना विस्तार कर लेते हैं. यही कारण है कि इन्सान को इन्सान बनाये रखने के जतन कई तरह से लगातार किये जाते रहते हैं, इसके बाद भी वो मौका पड़ते ही अपना पाशविक रूप दिखा ही देता है. कभी परिवार के साथ विद्रोह करके, कभी समाज में उपद्रव करके. कभी अपने सहयोगियों के साथ दुर्व्यवहार करके तो कभी किसी अनजान के साथ धोखाधड़ी करके. यहाँ मंतव्य यह सिद्ध करने का कतई नहीं है कि सभी इन्सान इसी मूल रूप में समाज में विचरण करते रहते हैं वरन ये दर्शाने का है कि बहुतायत इंसानों की मूल फितरत इसी तरह की रहती है.

अपनी इसी मूल फितरत के चलते समाज में महिलाओं के साथ छेड़खानी की, बच्चियों के साथ दुराचार की, बुजुर्गों के साथ अत्याचार की, वरिष्ठजनों के साथ अमानवीयता की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं. जरा-जरा सी बात पर धैर्य खोकर एक-दूसरे के साथ हाथापाई कर बैठना, अनावश्यक सी बात पर हत्या जैसे जघन्य अपराध का हो जाना, सामने वाले को नीचा दिखाने के लिए उसके परिजनों के साथ दुर्व्यवहार कर बैठना, स्वार्थ में लिप्त होकर किसी अन्य की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना आदि इसी का दुष्परिणाम है. ये सब इंसानों के भीतर बसे रावण के चलते है है जो अक्सर अपनी दुष्प्रवृतियों के कारण जन्म ले लेता है. अपनी अतृप्त लालसाओं को पूरा करने के लिए गलत रास्तों पर चलने को धकेलता है. यही वो अंदरूनी रावण है जो अकारण किसी और से बदला लेने की कोशिश में लगा रहता है. इस रावण के चलते ही समाज में हिंसा, अत्याचार, अनाचार, अविश्वास का माहौल बना हुआ है. अविश्वास इस कदर कि एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भय लगने लगा है. अविश्वास इस कदर कि आपसी रिश्तों में संदिग्ध वातावरण पनपने लगा है.


आखिर क्या हम सब महज एक दिन रावण के सांकेतिक पुतले को मारकर सांकेतिक रूप में ही बुराई को मारने का दम भरते रहेंगे? क्या हम सब एक दिन बुराई का अंत करने का प्रहसन सा करके शेष पूरे वर्ष भर बुराई, अत्याचार को बढ़ावा देते रहेंगे? हम में से शायद कोई नहीं चाहता होगा कि हमारे समाज में, हमारे परिवार में अत्याचार, अनाचार बढ़े. इसके बाद भी ये सबकुछ हमारे बीच हो रहा है, हमारे परिवार में हो रहा है, हमारे समाज में हो रहा है. हमारी ही बेटियों के साथ दुराचार हो रहा है. हमारी ही बेटियों को गर्भ में मारा जा रहा है. हमारी ही बेटियों को दहेज़ के नाम पर मारा जा रहा है. हमारे ही अपनों की संपत्ति को कब्जाया जा रहा है. हमारे ही किसी अपने की हत्या की जा रही है. हमारे ही किसी अपने का अपहरण किया जा रहा है. और करने वाले भी कहीं न कहीं हम सब हैं, हमारे अपने हैं, हम में से ही कोई हमारा है. ऐसे में बेहतर हो कि हम लोग रावण के बाहरी पुतले को मारने के साथ-साथ आंतरिक रावण को भी मारने का काम करें. न सही एक दिन में, एक बार में मगर समय-समय पर नियमित अन्तराल में अपने अन्दर के रावण की एक-एक बुराई को समाप्त करते रहे तो वह दिन दूर नहीं होगा जबकि हमें बाहरी रावण को मारने की जरूरत पड़ेगी. तब हम वास्तविक समाज का निर्माण कर सकेंगे, वास्तविक इन्सान का निर्माण कर सकेंगे, वास्तविक रामराज्य की संकल्पना स्थापित कर सकेंगे.

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