समाज का जब निर्माण हुआ होगा, उस समय भी
किसी न किसी तरह के मूल्य अवश्य ही चलन में रहे होंगे। भारतीय संदर्भों में मूल्यों
का तादात्म्य सत्यम,
शिवम,
सुन्दरम से बैठाकर उसे अनुपम, अलौकिक माना जाता है। वर्तमान समय में जबकि वैश्विक स्तर पर
अनेकानेक लोकतान्त्रिक शक्तियाँ विभिन्न प्रकार के संकटों से दो-चार हो रही है, उन्हें भी
मूल्यों की, मानवीय मूल्यों की महत्ता का एहसास हो रहा है। ऐसी स्थिति में वैश्विक स्तर पर
जीवन मूल्यों को अपनाने की सलाह दी जाने लगती है। देशों को, वहाँ के
नागरिकों को, नक्सलवाद अथवा आतंकवाद के द्वारा नरसंहार करने वाले व्यक्तियों, संगठनों
से जीवन मूल्यों की रक्षा करने की गुहार लगाई जाने लगती है। सवाल उठता है कि आखिर मानवीय
मूल्यों, जीवन मूल्यों अथवा मूल्यों की पहचान क्या है? इनके स्थापन के मानक क्या हैं?
जीवन-मूल्यों अथवा मानवीय-मूल्यों को समझने
के लिए उसके निर्धारक तत्त्वों को जानना अपरिहार्य है। मनुष्य का सम्पूर्ण कायिक, मानसिक, सामाजिक
व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों के द्वारा संचालित होता है। इन्हीं प्रवृत्तियों के
आधार पर मूल्य संरचना निर्माण को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया जाता है। इसमें
पहला जैविक आधार और दूसरा पराजैविक आधार कहा जाता है। इन मूल्यों में जैविक आधार के
अन्तर्गत शारीरिक संरचना,
मूल प्रवृत्तियाँ, संवेग,
प्रेरणा,
अनुभूतियाँ, अभिवृत्तियाँ, सहानुभूति, अनुकरण,
सुझाव,
अभिरुचि,
पूर्व धारणा और तर्क को सम्मिलित किया जाता है। पराजैविक आधार
को पुनः तीन भागों सामाजिक,
प्राकृतिक और मानविकी में स्वीकारा गया है। इस विभाजन में किसी
भी व्यवस्था को सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए उसका पराजैविक आधार अत्यन्त महत्वपूर्ण
माना गया है। इसमें सामाजिक मूल्य के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी अन्तर्निहित हैं। मनुष्य
की कल्पनाशीलता,
उसकी तार्किकता, चैतन्यता उसके अन्य पशुओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ बनाती है। उसकी
यही सांस्कृतिकता के चलते उसके प्रत्येक कार्य का मूल्यपरक होना परिहार्य होता है।
सामाजिक मान्यताओं की बात हो अथवा राजनैतिक स्थितियों की चर्चा सभी में मानव के जीवन-मूल्यों
का सशक्त होना जरूरी है। यदि मानवीय मूल्यों की आदर्शवादी व्यवस्था न हो तो सम्भवतः
समाज का, शासन का संचालन करना बेहद दुष्कर हो जाये। आस्थाओं, परम्पराओं, चिन्तन, जीवन-साधना
को विस्मृत करने के बाद किसी भी रूप में सामाजिकता को विखण्डित करने का कार्य किया
जाना मानवीय-मूल्यों के लोप को ही दर्शाता है।
मानवीय क्रियाकलापों में आज मानवीय मूल्यों
में हृास देखने को मिल रहा है। परिवार जैसी संस्था का लोप होता जा रहा है। संयुक्त
परिवार लगातार सिकुड़ते हुए एकल परिवारों और नाभिकीय परिवारों में सिमटने लगे हैं। ऐसा
होने से संयुक्त परिवारों में सम्पत्ति के अधिकारों में परिवर्तन, परम्परागत
व्यवसाय के महत्व में कमी,
सम्बन्धों में परिवर्तन, धार्मिक प्रकृति का हृास, आकार का हृास, परिवार के महत्व में कमी आदि देखने को मिली है। समाज में जिस
तरह से लगातार हिंसा,
अत्याचार,
महिला हिंसा, यौनापराध,
हत्याओं आदि का सिलसिला चल निकला है वह मानवीय मूल्यों के क्षरण
का ही दुष्परिणाम है। ऐसे में विचार करने की आवश्यकता है कि इन मूल्यों को कैसे प्रतिस्थापित
किया जाये? इनके क्षरण को कैसे रोका जाये? समझने की बात है कि आखिर हम मानवीय मूल्यों के विकास के लिए
कर क्या रहे हैं?
हम जीवन-मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिए, अगली पीढ़ी
में उसके हस्तांतरण के लिए क्या कदम उठा रहे हैं? यदि पूरी ईमानदारी से मनुष्य अपने प्रयासों की ओर देख भर ले
तो पायेगा कि उसके समस्त क्रियाकलापों के द्वारा मूल्यों का, जीवन-मूल्यों
का क्षरण ही हुआ है।
मानवीय मूल्यों का मनुष्य के साथ साहचर्य
अनादिकाल से रहा है और बिना इसके मनुष्य निरा पशु समान ही माना गया है। ऐसे में किसी
भी रूप में मानवीय मूल्यों को बचाना मानव की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। यद्यपि
परिवर्तन समाज की शाश्वत प्रक्रिया है किन्तु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कहीं लगातार
होते जा रहे अंधाधुँध परिवर्तन में मनुष्य स्वयं को तो समाप्त नहीं करता जा रहा है।
‘जब भी कोई समाज विकासक्रमानुसार एक अवस्था से दूसरी अवस्था में सवंमित होता है
तभी जीवन-व्यवस्था से सम्बद्ध मानवीय सम्बन्धों पर आधारित जीवन-मूल्यों के स्वरूप एवं
दिशा में भी परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। तब युगीन आवश्यकतानुसार पूर्वस्थापित
जीवन-मूल्यों का पुनर्मल्यांकन,
अवमूल्यन तथा नव-निर्माण का कार्यक्रम भी क्रियान्वित होता है।’ऐसी स्थिति
में जीवन-मूल्यों की प्रतिस्थापना के लिए एकमात्र सहारा शिक्षा व्यवस्था ही नजर आती
है। शिक्षा जहाँ एक ओर मनुष्य के वैयक्तिक व्यक्तित्व को विकसित करती है, वहाँ उसके
सामाजिक तथा सांस्कृतिक व्यक्तित्व को भी गति देती है। देखा जाये तो शिक्षा व्यक्ति
की चिन्तन-शक्ति,
अभिरुचि,
क्षमता आदि का विकास करके उसकी सामाजिकता और सांस्कृतिकता का
निर्माण करता है। शिक्षा के द्वारा व्यक्ति कई-कई पीढ़ियों की सांस्कृतिक विरासत का
संवाहक बनता है। यही संवाहक यदि मानवीय-मूल्यों का संरक्षण करता हुआ आगे बढ़ता है तो
वो न केवल समाज के लिए लाभकारी होता है वरन् लोकतन्त्र के लिए भी कारगर होता है।
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