जब पहली बार बहिन दिव्या ने उस व्यक्ति के बारे में
बताया तो लगा कि कोई सिरफिरा ही है. ऐसे व्यक्ति को सिरफिरा नहीं कहा जाये तो और
क्या कहा जाये जो अपने परिवार की चिंता किये बिना दूसरे परिवारों की चिंता कर रहा
हो. अपनी बेटी, पत्नी, बहिन के भविष्य, उनकी सुरक्षा से अधिक दूसरी बहिन, बेटियों
की चिंता करने में लगा हो. इतना होना ही उसको सिरफिरा नहीं बना रहा था वरन इससे भी
कहीं अधिक आगे निकल जाना उसे सिरफिरा सिद्ध करने को विवश कर रहा था. दरअसल वो युवक
सिर्फ उनकी सुरक्षा की बात ही नहीं करने जा रहा था वरन पूरे देश में साईकिल यात्रा
के द्वारा जागरूकता सन्देश देने जा रहा था. पूरे देश का साईकिल के द्वारा भ्रमण
करने का अर्थ कोई एक-दो सप्ताह तो था नहीं, कोई एक-दो महीने भी नहीं था. ऐसा करने
के पीछे पूरे तीन साल का समय उसने निर्धारित कर रखा था.
छोटी बहिन दिव्या का स्नेहिल आदेश हुआ कि वो जब अपनी
यात्रा आरम्भ करे तो हम उसको रूट-मैप उपलब्ध कराते रहें ताकि वो अपना अधिक से अधिक
समय सकारात्मक रूप से लगा सके. इंटरनेट से दोस्ताना सम्बन्ध होने के कारण ऐसा करना
हमारे लिए कठिन नहीं था मगर यात्रा के आरम्भ होने का स्थान, उस यात्रा के चलने की
अवधि सशंकित करने वाली अवश्य थी. बहरहाल उस युवक की दृढ़ता कम न हुई. उसका विश्वास
कम न हुआ. आत्मबल ने उसका साथ न छोड़ा और उस नौजवान ने 15 मार्च 2014 को
साईकिल पर पहला पैडल मार उसे चला ही दिया. लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए उस
नौजवान ने अपने आसपास का अथवा अपने परिचित क्षेत्र को नहीं चुना वरन अपने मूल
स्थान बिहार से सैकड़ों किमी दूर तमिलनाडु के चेन्नई को इस काम के लिए चुना. जिस
तरह ये समूचा अभियान हमारे लिए किसी सिरफिरे दिमाग की उपज समझा जा रहा था, किसी के
लिए भी हो सकता था. जिस तरह से उस युवक की ये साईकिल यात्रा हमारे लिए अचम्भा थी
वैसे किसी के लिए भी हो सकती थी. आश्चर्य तो तब हुआ जबकि पता चला कि साईकिल यात्रा
समापन की पूर्व निर्धारित तिथि 15 मार्च 2017 को आगे बढ़ाकर 15 अक्टूबर 2018 कर दिया गया है. जी हाँ, बिहार के तरियानी छपरा के युवक राकेश कुमार सिंह ने लैंगिक असमानता दूर करने के
उद्देश्य से अपनी साईकिल यात्रा को जब आरम्भ किया था तब उनकी मंशा मार्च 2017 में इसका समापन करने की थी.
यात्रा आरम्भ होने के पहले से मोबाइल के द्वारा
राकेश से वार्तालाप होने लगा. वो जमीनी स्तर पर अपनी तैयारियों, कार्यों की चर्चा
करते और हम दिव्या के सहयोग से उनकी सहायता कमरे में बैठकर करते. अंततः वो दिन आ
गया जब राकेश की साईकिल दौड़ पड़ी. सार्थक उद्देश्य को लेकर दौड़ती साईकिल एक बार चली तो फिर चलती चली जा रही
है. लैंगिक आज़ादी के लिए यात्रा के ध्येय वाक्य के साथ राकेश की साइकिल यात्रा तमिलनाडु
से शुरू हुई होकर केरल, पांडिचेरी,
कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना,
उड़ीसा, बिहार, नेपाल के सीमावर्ती
कस्बों, स्थानों से होकर उत्तर प्रदेश से गुजरती हुई मध्य
प्रदेश पहुँच चुकी है. ढाई वर्ष की इस यात्रा में राकेश लगभग सोलह हजार किमी की
यात्रा कर चुके हैं. वे महज यात्रा नहीं कर रहे हैं वरन अपनी यात्रा के विभिन्न
पड़ावों में लोगों से संवाद स्थापित भी कर रहे हैं. उनके साथ विचारों का
आदान-प्रदान करने वाले राकेश अभी तक लगभग चार लाख लोगों से मिल चुके हैं.
दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त राकेश के
मन में अचानक से ऐसा करने का विचार नहीं जागा. वे भी शिक्षा पूरी करने के बाद आम
युवकों की भांति जीवन-यापन के लिए नौकरी करने लगे. इसी दौरान उनका सम्पर्क एक ऐसे
इंसान से हुआ जो तेजाब हमलों की शिकार युवतियों के लिए कार्य करता था. संवेदना से
भरे राकेश ने भी चार माह तेजाबी हमले की शिकार युवतियों के साथ रह कर उनकी पीढ़ा,
सामाजिक तिरस्कार, दर्द, उनके परिवार की परेशानी, व्यक्तित्व के संकट को बहुत ही करीब से देखा,
पहचाना, एहसास किया. युवतियों के साथ होते तेजाबी हमले,
उनके साथ होती दुर्व्यवहार की घटनाएँ,
छेड़खानी आदि के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या,
दहेज़ हत्या, घरेलू हिंसा, लैंगिक असमानता आदि को भी वे आये दिन देख रहे थे. इन
सबसे उद्वेलित होकर एक दिन उन्होंने अपनी नौकरी को त्याग समाज की युवतियों के पक्ष
में, लैंगिक असमानता को दूर करने
के लिए कार्य करने का मन बना लिया.
इसे हमारा सौभाग्य ही कहा जायेगा कि उनकी साईकिल
यात्रा के पड़ावों में हमारा शहर उरई भी आया. उनकी यात्रा के आरम्भ होने के पहले से
उनके साथ मोबाइल पर बना संपर्क, महिलाओं से सम्बंधित विभिन्न मुद्दों पर उनके साथ
विचार-विमर्श, यात्रा के विभिन्न चरणों में आती सुखद-दुखद स्थितियों की चर्चा आदि
से उनके साथ एक रिश्ता सा बन गया था. इस रिश्ते ने 19 सितम्बर 2016 की सुबह गले मिलकर
अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष बना दिया. दो दिनों तक जनपद में कई-कई जगहों पर उनके
संवाद, उनकी यात्रा, लोगों से विचार-विमर्श को देख-सुनकर उनके विश्वास को बहुत
करीब से देखने का अवसर मिला. पाँच घंटे में 119 किमी की दूरी
तय करने के बाद भी जनपद जालौन में जगह-जगह जाने की ललक, लोगों से संवाद स्थापित
करने का उत्साह देखते बनता था. यात्रा के अपने अनुभवों को बताते हुए उन्होंने बताया
कि समूचे देश के अभी तक जिन नौ प्रान्तों में वे अपनी यात्रा कर चुके हैं वहाँ पहनावे
को लेकर, शिक्षा को लेकर,
रहन-सहन को लेकर स्थितियाँ कमोवेश एक जैसी
ही हैं. इन सबको दूर करने के लिए मानसिकता को बदलना होगा. हम सब मिलकर समाज को भले
न बदल पायें पर कम से कम अपने परिवार को बदलने का काम करें. यदि एक-एक व्यक्ति अपने
घर को ही महिला हिंसा मुक्त कर दे, महिला को शिक्षित होने, रोजगार
करने, पहनने की आज़ादी दे तो समाज
का भला अपने आप ही हो जायेगा.
15 अक्टूबर 2018 को बिहार में उनके गृह जनपद में यात्रा
समापन पर वैचारिक मेले का आयोजन किया जायेगा, जिसमें पूरे देश भर से जागरूक लोगों का, सामाजिक कार्यकर्ताओं का जमावड़ा होगा. उनकी
इस यात्रा से लोग सबक सीख सकें, महिलाओं के प्रति सौहार्द्रपूर्ण रवैया अपना सकें,
उनको भी इंसान समझकर उनके साथ सकारात्मक व्यवहार कर सकें, ऐसी अपेक्षा की जा सकती
है.
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