आये दिन मासूम बच्चों द्वारा आत्महत्या करने की खबरें सुनने को मिल रही हैं. आठ-दस
वर्ष के बच्चों द्वारा आत्महत्या करना किसी भी रूप में नजरअंदाज करने वाली स्थिति नहीं
है. इसके मूल कारक को समझना ही होगा. जैसे-जैसे विकास की राह प्रशस्त हुई है वैसे-वैसे
अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं ने भी अनियमित विकास किया है. इस अंधाधुंध विकास में
बच्चों से न सिर्फ अच्छे अंक लाने की जबरदस्ती की जा रही वरन दूसरे बच्चों से गलाकाट
प्रतियोगिता भी करवाई जा रही है. बच्चों में आपस में सहयोग, समन्वय की भावना विकसित करने के बजाय आपस में प्रतिद्वंद्विता
पैदा की जा रही है. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर कटुता पैदा की जा रही है. सिर्फ
और सिर्फ सफलता प्राप्त करने की शर्त के साथ-साथ बच्चों को एकाकीपन के चंगुल में बाँधा
जा रहा है. बच्चों पर इसका प्रभाव नकारात्मक रूप में देखने को मिल रहा है. वे छोटी
कक्षाओं में भी अधिक से अधिक अंक लाने के लिए, अपनी ग्रेडिंग ख़राब न होने के लिए चिंतित दिखाई देने
लगे हैं. उन पर पढ़ाई का अतिरिक्त मानसिक दवाब डालना उनके बचपन को छीन रहा है. सफलता
प्राप्त करने का शोर, दूसरे से
आगे बने रहने की होड़, किसी भी कीमत
पर सबसे आगे और सदैव आगे ही बने रहने का दबाव बच्चों को भीतर से खोखला कर रहा है. उनका
यही खोखलापन उनकी असफलता में या फिर असफलता की आशंका में उनको सबसे दूर कर रहा है.
बच्चों द्वारा सिर्फ असफलता के भय से अथवा कुछ प्रतिशत अंक कम आने के चलते आत्महत्या
कर लेना समूची व्यवस्था को कटघरे में खड़ा करता है. महज कुछ अंकों के कारण एक हँसता-खेलता
बच्चा सदैव के लिए खामोश हो जाये तब विचार करिए उस बच्चे के अन्दर के भय का,
अविश्वास का. डर, भय का वातावरण उसमें किस कदर समा गया होगा कि
कम अंक आने के भय से उसने दुनिया को छोड़ दिया. घर से लेकर स्कूल तक, अभिभावकों से लेकर शिक्षक तक सभी का ध्यान बच्चों
को साक्षर, शिक्षित, संस्कारित बनाये जाने से ज्यादा इस तरफ है कि
वे कैसे अधिक से अधिक अंक प्राप्त करें. वे बच्चों की बुनियाद को मजबूत करने के स्थान
पर उनके मन में अधिकाधिक पैकेज वाली जॉब का लालच भरने में लगे हैं.
आज की जीवनशैली भी बच्चों के अन्दर हताशा, निराशा, आक्रोश पैदा कर रही
है. सबके बीच रहकर भी बच्चा स्वयं को नितांत अकेला महसूस करता है. खेलने के लिए पार्कों
के स्थान पर बनती बहुमंजिला इमारतें, चमक-दमक से भरे मॉल दिखाई दे रहे हैं. बच्चों के आपस में मिलजुल कर खेलने का स्थान
वीडिओ गेम, कंप्यूटर, मोबाइल ने ले लिया है. हँसते-खेलते, धमाचौकड़ी करते, उठापटक करते बच्चों के स्थान पर प्रौढ़ बच्चे दिखाई देने
लगे हैं. इसके साथ-साथ अभिभावकों द्वारा भौतिकतावादी दुनिया के दिखावे में स्थापित होने
के चलते उनका एकमात्र मकसद धनोपार्जन रह गया है. ऐसे में उनके द्वारा अपने बच्चों के
लिए समय, स्नेह, प्यार आदि दे पाना सहज रूप से संभव नहीं हो पा
रहा है. भारी-भरकम जेबखर्च देने, महंगी-महंगी बाइक, कार आदि
उपलब्ध करवा देने को, ऐशो-आराम
की सभी वस्तुओं की उपलब्धता को माता-पिता की प्यार भरी छाँव के रूप में नहीं देखा जा
सकता है. आज माता-पिता या घर-परिवार के सदस्य बच्चों के साथ खेलने के बजाय सोशल मीडिया
में आभासी क्रांति करते घूम रहे हैं. बच्चों की खुशियों के स्थान पर अपनी लाइक-कमेन्ट
की चिंता में मगन हैं. बच्चों में धैर्य, आत्मविश्वास, संस्कार स्थापित
करने के स्थान पर वे अपने बैंक-बैलेंस को बढ़ाने में लगे हैं. ऐसा नहीं कि ये सभी घरों
की समस्या है पर बहुतायत घरों-परिवारों में आज ये समस्या देखने को मिल रही है.
ऐसे माहौल में जबकि बच्चे को अपनी परेशानी, अपनी निराशा, अपनी हताशा के निपटारे के लिए कोई अपना नहीं दिखता है
तब वह एकाकी महसूस करता है. इन एकाकी पलों में उसका सहारा या तो टीवी होता है या फिर
इंटरनेट. इन माध्यमों से कितनी सार्थक सोच, कितनी सार्थक विचारधारा, कितनी सार्थक संस्कृति हमारे घरों में प्रवेश कर चुकी
है, उसे कहने-बताने की आवश्यकता
नहीं है. बच्चों को विश्वास में लेने की जरूरत है. उनके भीतर से खोखलापन हटाकर आत्मविश्वास
भरने की जरूरत है. उन पर अनावश्यक दवाब बनाकर उनके जीवन को असमय समाप्त करने के स्थान
पर उनको खिलखिलाते रहने के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है. अंकों की प्रतिस्पर्धा
के बजाय उनमें स्वावलंबन की, संगठन
की, समन्वय की भावना का विकास करने
की जरूरत है. अपने बच्चों के बीच बिना बैठे, उनके साथ बिना खेले, उनके मनोभावों को बिना बाँटे हम बच्चों को बचाने में
लगभग असफल ही रहेंगे. अच्छा हो कि हम अपना समय अपने बच्चों के साथ शेयर करें जिससे
हम उनके हँसते-खेलते बचपन में अपना बचपन देख सकें, अपने बच्चों का जीवन सुरक्षित रख सकें. यदि हम आने वाले
समय में ऐसा कर पाए तो अवश्य ही विकास की राह प्रशस्त कर पायेंगे, अन्यथा कष्ट तो दिनों-दिन बढ़ते ही जाना है.
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