उस दिन बुढ़वा मंगल था. स्थानीय अवकाश होने के कारण विद्यालय, कार्यालय, कचहरी
आदि में छुट्टी थी. पिताजी भी घर पर ही थे. छोटा भाई हर्षेन्द्र अपने कुछ मित्रों
के साथ उरई के पास बने संकट मोचन मंदिर गया हुआ था. हम भी अपनी छुट्टी के चलते ग्वालियर
नहीं गए थे. मंदिर वगैरह जाने का, बुढ़वा मंगल को होने वाला दंगल देखने का ऐसा कोई
विशेष शौक न तो हमारा था और न ही हमारे मित्रों का. ऐसे में दोपहर को घर में ही
आराम से पड़े थे. बात सन 1991 की है, तब हाथ में न तो मोबाइल होता था, न मेज पर कंप्यूटर और न ही
इंटरनेट जैसा कुछ. सो किताबों से अपनी दोस्ती को सहज रूप से आगे बढ़ा रहे थे.
तभी किसी ने दरवाजे को बहुत जोर-जोर से पीटना शुरू किया. साथ में वो व्यक्ति
पिताजी का नाम लेता जा रहा था. दरवाजा पीटने की स्थिति से लग रहा था कि उसे बहुत
जल्दी है. हम शायद जोर से चिल्ला बैठते मगर उसके द्वारा पिताजी का नाम बार-बार,
चिल्ला-चिल्ला कर लेते जाने से लगा कि कोई ऐसा है जो उम्र में पिताजी से बड़ा है.
जल्दी से उठकर दरवाजा खोला तो सामने गाँव के द्वारिका ददा हैरान-परेशान से खड़े थे.
इतनी देर में अन्दर से पिताजी भी बाहर आ गए. “चाचा की तबियत बहुत ख़राब है.” ददा के
मुँह से इतना ही निकला.
“कहाँ हैं?” के सवाल पर उनके हाथ का इशारा पास के डॉक्टर देवेन्द्र के क्लीनिक
की तरफ गया. हमने बिना कुछ आगे सुने, उस तरफ पूरी ताकत से दौड़ लगा दी. बमुश्किल सौ
मीटर की दूरी पर बने उनके क्लीनिक के सामने एक जीप खड़ी थी और गाँव के कुछ लोग.
हमने जल्दी से जीप के पीछे वाले हिस्से में चढ़कर देखा, बाबा चादर ओढ़े लेते हुए थे.
“बाबा, बाबा” हमारी आवाज पर कोई हरकत नहीं हुई. तब तक पिताजी, अम्मा भी आ गए.
डॉक्टर देवेन्द्र ने जीप में अन्दर जाकर बाबा को देखा और नकारात्मक मुद्रा में सिर
हिला दिया.
“डॉक्टर साहब, ऐसा नहीं हो सकता, जरा फिर से देख लीजिये.” अम्मा जी का रोआंसा
सा स्वर उभरा. पिताजी, हमारी और गाँव के बाकी लोगों की आँखों में पानी भर आया.
डॉक्टर साहब ने दोबारा जाकर जाँच की और जीप से उतर कर फिर वही जवाब दिया.
एक झटके में लगा जैसे समूचा परिवार ख़तम हो गया. अइया गाँव में ही थीं. रोने-बिलखने
के बीच बाबा की पार्थिव देह को गाँव ले जाने की ही सलाह पिताजी को दी गई. मोहल्ले
के कुछ लोगों को खबर दी गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये. तब दूरसंचार
सुविधा भी आज के जैसी अत्याधुनिक नहीं थी. तीनों चाचा लोग दूर थे, उनको कैसे खबर
दी जाए, पिताजी इस सोच में थे. टेलीफोन से, तार से, जाकर जैसे भी हो उनको खबर दी
जाए, इसकी जिम्मेवारी मोहल्ले के लोगों ने ले ली.
17 सितम्बर 1991, दिन मंगलवार, बुढ़वा
मंगलवार, हम लोग उसी जीप में बैठकर बाबा की देह को लेकर गाँव चल दिए. वे बाबा जो
उसी सुबह तक लगभग 75-76 वर्ष की उम्र में पूरी तरह स्वस्थ,
तंदरुस्त, सक्रिय थे और अचानक हम सबको छोड़कर चले गए. काम करने के दौरान सुबह दीवार
से सिर टकरा जाने, गाँव के नजदीक के कस्बे माधौगढ़ में प्राथमिक उपचार के बाद उरई
लाया गया. जहाँ वे बिना किसी तरह की सेवा करवाए इस निस्सार संसार में हम सबको
अकेला कर गए.
जमींदार परिवार का होने के बाद भी बाबा जी ने अपने समय में बहुत कठिनाइयों का
सामना किया. पढ़ाई के समय भी संघर्ष किया. आज़ादी की लड़ाई में खुलकर भाग भले न लिया
हो पर आन्दोलनों में भागीदारी की. एकबार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का प्रमाण-पत्र
बनने का मौका आया तो ये कहकर मना कर दिया कि ऐसा कोई काम उन्होंने नहीं किया कि
उन्हें सेनानी कहा जाये. बाबा जी से बहुत कुछ सीखने को मिला. मेहनत, आत्मविश्वास,
कर्मठता, निर्भयता, जोश, जीवटता, सकारात्मक सोच आदि-आदि गुणों का जो क्षणांश भी
हममें मिलता है वो उनकी ही देन है. आज 25 वर्ष हो गए उनको हमसे दूर हुए मगर ऐसा लगता है जैसे वो बुरा
वक्त कल की ही बात हो. बुढ़वा मंगल हर बार रुला जाता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें