हम लोगों
के दर्शनीय स्थलों में मुख्य रूप से विवेकानन्द रॉक मेमोरियल, विवेकानन्द
केंद्र और कन्याकुमारी का समुद्रतट था. इसके अलावा कन्याकुमारी में बना वैक्स म्यूजियम, सुचिन्द्रम, माथूर हैंगिंग
ब्रिज, पद्मनाभम पैलेस,
कोवलम बीच भी शामिल थे. विवेकानन्द केंद्र में संचालित इंटरनेट
कैफे तथा ट्रेवल-टूर सेंटर पर संपर्क किया और किराया, समय, स्थान आदि
का निर्धारण करने के बाद अगले दिन टैक्सी से घूमने का निश्चय किया. उस सेंटर के मालिक
से हुई फोन पर बातचीत के बाद एक टैक्सी सुबह सात बजे के लिए बुक कर दी गई.
अगले दिन
रक्षाबंधन का पावन पर्व था. अपने शहर से बहुत दूर होने, कलाई सूनी
होने का दुःख तो था ही साथ ही ठीक एक वर्ष पूर्व हुई दुर्घटना भी दिमाग में छाई हुई
थी. तमाम सारी उदासियों के बीच सुखद एहसास इसका हुआ कि टैक्सी सुबह सात बजने से चन्द
मिनट पहले ‘काशी’(जहाँ हम रुके थे) के सामने खड़ी हो गई. सुखद एहसास इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि
हमने अपनी तरफ टैक्सी को समय से आते कम ही देखा है. ड्राईवर ने आने की सूचना मोबाइल
पर दी और हम लोग नीचे आने को तैयार हुए. पहली मंजिल पर कमरा होने के कारण हम सीढ़ियों
से धीरे-धीरे उतरते हुए नीचे आ रहे थे. ये लोग जल्दी से उतर कर केंद्र के कमरों सम्बन्धी
हिसाब-किताब करने की दृष्टि से रिसेप्शन की तरफ चले गए.
सीढ़ियाँ
उतर कर जैसे ही बरामदे को पार किया, अचानक से सामने एक लड़की और लड़का प्रकट से हो गए. लड़की के हाथ
में छोटी सी स्टील की प्लेट थी,
जिसमें एक दीपक जल रहा था. प्लेट में एक तरफ करीने से रोली, हल्दी, चावल रखे
हुए थे. अगरबत्ती भी अपनी महक फैला रही थी. लड़का एक छोटा सा थैला अपने हाथों में समेटे
था. सलवार कुर्ता,
पैरों में स्लीपर, आँखों में नजर का चश्मा लगाये आत्मीय भाव से लड़की ने मुस्कुराते
हुए कहा, “भैया आज रक्षाबंधन है. आपको राखी बाँधना है.”
जिस कमी को सोचते-सोचते सीढियाँ उतर रहे थे, उसी को अचानक
पूरा होते देखकर मन ख़ुशी से झूम उठा. बिना कुछ कहे-पूछे उसके सामने अपनी सूनी कलाई
बढ़ा दी. अपने दुपट्टे को अपने सिर पर रखकर दाहिने हाथ की ऊँगली से हमारे माथे पर टीका
लगाया, चावल लगाये और फिर आरती उतार कर प्लेट अपने साथ वाले लड़के को पकड़ा दी. कलाई पर
राखी बाँधने के बाद उसने तेजी से झुकते हुए हमारे पैर छूने की कोशिश की. उसकी तत्परता
से अधिक फुर्ती के साथ उसके हाथों को बीच में ही रोक कर हमने उसके पैर छुए. “आप बड़े हो, पैर नहीं
छूते” कहते हुए उसने अपने संस्कारों को स्पष्ट किया. “हम लोग बहिनों से पैर नहीं छुआते बल्कि उनके पैर छूते हैं” कहते हुए
उसको स्नेह-भेंट दी. इस पर वे दोनों ही अचकचा गए.समझाने पर वे उसे स्वीकारने को तैयार
हुए. ख़ुशी से आँखें छलकाते हुए हम तीनों लोग एकसाथ आगे बढ़े. सामने से सुभाष को, बिटिया और
निशा को आते देखकर उस बहिन ने इनको भी राखी बाँधी. हँसते-मुस्कुराते हुए वो आगे बढ़
गए और हम लोग टैक्सी में बैठ घूमने को निकल पड़े.
टैक्सी चल
दी. मुरुगन नाम था ड्राईवर का. दो-चार मिनट के औपचारिक परिचय से समझ आया कि उसे हलकी-फुलकी
हिन्दी समझ आती है. उतनी ही हलकी-फुलकी बोल भी लेता है. विवेकानन्द केंद्र के बाहर
सड़क पर आकर उसने कार दाहिनी तरफ मोड़ दी. जगह अनजान थी, जहाँ जा
रहे थे वे जगह भी अनजानी थी. आसपास में कोई परिचित भी नहीं था. ऐसे में असुरक्षा का
बोध होते ही दिमाग सक्रिय हुआ. अपने भाइयों को, दीदी को टैक्सी का नंबर, ड्राईवर का नाम, मोबाइल नंबर, ट्रेवल-टूर सेंटर वाले का नाम, मोबाइल नंबर, कहाँ-कहाँ
जाना है आदि विवरण व्हाट्सएप्प कर दिया. क्या होगा, क्या नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता मगर अब दिमाग में ये भाव था
कि हमारी जानकारी सबके पास है.
टैक्सी मुख्य
सड़क पर कुछ देर चलने के बाद दाहिनी तरफ मुड़ गए एक पक्के रास्ते पर मुड़ गई. जैसा कार्यक्रम
ड्राईवर के साथ बना था,
उसके अनुसार हम लोगों को पहले पद्मनाभम पैलेस देखना था. (इसके
बारे में विस्तार से आगे) पद्मनाभम पैलेस से निकलते ही हमारी टैक्सी उसी सिंगल रोड
पर आगे बढ़ चली. अब हम लोग हैंगिंग ब्रिज की तरफ जा रहे थे. छोटे-छोटे कस्बों, केले, नारियल के
खेतों के अलावा दोनों तरफ कुछ और बड़े-बड़े, लम्बे-लम्बे अनजाने से पेड़ दिखे. मुरुगन ने बताया कि ये रबर
के पेड़ हैं. तेजी से भागती टैक्सी के साथ-साथ भागने की होड़ लगाते केले, नारियल, रबर के छोटे-छोटे
बगीचे, खेत मन मोह ले रहे थे. दोनों तरफ फैली हरियाली, सामने पक्की सड़क, बीच-बीच में आते जाते पक्के-कच्चे मकानों के बीच से हम लोग स्थानीय
जानकारी लेते हुए आगे चले जा रहे थे. थोड़ी देर बाद दाँयी तरफ दूर पहाड़ों की श्रृंखला
नजर आने लगी. बादल पहाड़ों से उतरकर सड़क पर आने की कोशिश कर रहे थे. पहाड़ों की श्रृंखला
और दूर होती रही और हमारी टैक्सी घुमावदार रास्ते पर दौड़ती रही. दाँए-बाँए घूमते-घूमते
पहाड़ कब बाँयी तरफ आ गए पता ही नहीं चला. पहाड़ के सहारे से बनी सड़क पर टैक्सी घुमाते
हुए ड्राईवर मुरुगन ने टैक्सी स्टैंड सी दिखने वाली जगह पर कार रोक दी.
कार से उतरकर
आसपास निहारा. पक्की सड़क और पहाड़ के बीच एक बहुत छोटी सी नहर सी नजर आई. गहराई बहुत
ज्यादा समझ नहीं आ रही थी. दाँयी तरफ बहुत बड़े भाग में केले, नारियल, रबर के पेड़
हरियाली बिखेरते हुए खड़े थे. प्राकृतिक सुन्दरता को आँखों-आँखों में समेट उस दिशा में
चल दिए जिस तरफ हैंगिंग ब्रिज बना हुआ था. सुभाष टिकट लेने को और हम फोटो लेने को आगे
बढ़े.
हमारे साथ-साथ बाँयी तरफ वो नहर भी चली जा रही थी. उसका यूँ पहाड़ी पर बहते रहना
समझ नहीं आया. दाहिनी तरफ जिस तरह का दृश्य दिख रहा था उससे एकबारगी लगा कि हो सकता
है ये नहर किसी झरने जैसा काम करे.
पुल की तरफ
जाने वालों की संख्या अत्यंत कम थी. हम लोगों के अलावा संभवतः 7-8 लोग और होंगे. चन्द
कदम आगे चलने पर आँखों के ठीक सामने पुल बना दिख रहा था. पहली नजर में आम पुलों की
भांति वो भी नजर आया. लम्बाई अधिक दिखी, ऊँचाई भी अधिक समझ आई हाँ, चौड़ाई कुछ कम लगी.
रास्ता हल्का सा बाँयी तरफ घूम कर पुल से
मिल गया. दाहिनी तरफ नीचे जाने को सीढियाँ बनी हुई थीं. पूरा पुल कई खम्बों के सहारे
टिका हुआ सामान्य पुलों जैसा ही दिखा. यदि सामान्य सा पुल है, खम्बों पर
ही टिका है तो इसको हैंगिंग ब्रिज कहने का क्या औचित्य है, ये समझ नहीं
आया. नीचे जाने वाली सीढ़ियों पर गौर न करके पुल की तरफ घूम गए.
‘ओ तेरी!
तो ये है असली वजह,
अब समझ आया.’ ऐसा लगा जैसे पुल पर चढ़ते ही ज्ञान मिल गया हो. काफी दूर से
जो नहर पानी लिए हमारे साथ बाँयी तरफ चल रही थी वो पुल के सहारे ही एक पहाड़ी से सामने
बनी दूसरी पहाड़ी पर पानी ले जा रही थी.
संकरे से
लगभग 3 फीट चौड़े पुल पर जब हमने चलना शुरू किया तो दाहिनी तरफ भरपूर गहराई दिखाई दी.
बाँयी तरफ देखा तो पैरों के ठीक नीचे पानी बह रहा था. यही असली कारण था, उसे हैंगिंग
ब्रिज कहने का. 29 खम्बों के सहारे खड़ा पुल एक तरफ से दूसरी तरफ पानी लेकर जाता है.
लगभग 7-8 फीट गहरी और लगभग इतनी ही चौड़ी टंकी या कहें कि नाली का निर्माण पुल के रूप
में किया गया. इसी पर लगभग तीन फीट चौड़ा पक्का रास्ता बना दिया गया. जिस पर चलकर एक
तरफ से दूसरी तरफ जाया जा सकता है.
पुल के किनारे लगे एक सूचना बोर्ड से सामान्य सी
जानकारी मिली. कुछ जानकारी वहाँ सामान बेचते लोगों से, कुछ स्थानीय
नागरिकों से मिली और कुछ जानकारी इंटरनेट ने उपलब्ध करवा दी. इसे एशिया का सबसे बड़ा
जलसेतु कहा जाता है.
पुल पर सहम-सहम कर धीरे-धीरे चलते हुए बीचों-बीच पहुँचकर देखा
तो पुल के नीचे से एक नदी बह रही थी. पुल पर सहमना इस कारण से हुआ क्योंकि जमीन से
लगभग सौ फीट की ऊँचाई पर हम लोग खड़े थे, हवा भी खूब तेज बह रही थी. पुल के साथ बहता पानी बाँयी तरफ तो
दिख ही रहा था, सीमेंट के पत्थरों के बीच की दरारों के कारण कदमों के नीचे बहता भी दिख रहा था.
इसके अलावा आसपास बनी सीमेंट की रेलिंग भी बहुत सुरक्षित समझ नहीं आ रही थी. रेलिंग
के दो खम्बों के बीच पर्याप्त स्थान था, जो डराने के लिए काफी था.
बहरहाल, तेज धूप
के बीच होते बादलों,
तेज हवा,
बिलकुल नजदीक बहते तेज पानी के बीच नीचे दूर-दूर तक फैली हरियाली
का आनंद लेकर हम लोग लौट आये. पुल के संकरेपन को ऐसे समझिये कि दो लोग एकसाथ नहीं चल
सकते थे.
वापस आकर सीढ़ियों के सहारे नीचे जाकर पुल की ऊँचाई को परखा. उसके नीचे महेन्द्रगिरि
पहाड़ी से निकलने वाली ‘पहराली नदी को कैमरे में कैद किया.
नदी के किनारे लगे बोर्ड में साफ़-साफ़ ‘Swimming is Strictly
Prohibited in this Place’ लिखा होने के बाद भी दो लोगों का तैरना कैद
किया. ये इस उद्देश्य से कि नियम तोड़ने का काम सिर्फ उत्तर भारतीय ही नहीं करते, नियम का
पालन करने को प्रसिद्द लोग भी ऐसा करते हैं. सन 1966 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री
के० कामराज द्वारा सूखे की समस्या से निपटने के लिए इसे बनवाया गया था. इसके पास बसे
छोटे से गाँव के नाम पर इस पुल को पर्यटक ‘माथुर हैंगिंग ब्रिज’ के नाम से जानते हैं.
तेज धूप
के बीच अचानक होने वाली बरसात तथा आगे के अन्य दूसरे दर्शनीय स्थलों को देखने की ललक
ने हम लोगों को कार की तरफ दौड़ाया. वहाँ सामान बेचते लोगों से आम, नारियल पानी, स्थानीय
खाद्य पदार्थों के लेकर हम लोग कार में बैठकर आगे को चल दिए. अब जलसेतु को जाती नहर
हमारे दाँए एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी को पानी भेजने हेतु दत्तचित्त थी. और हम एक जगह
से दूसरी जगह जाने को तत्पर थे.
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