23 जुलाई 2016

जालौन की पहली महिला क्रांतिकारी : ताईबाई - (1000वीं पोस्ट)

सन् 1857 की क्रान्ति में सभी ने अपनी क्षमता से अधिक आहुति दी। उत्तर प्रदेश का जनपद जालौन भी किसी दृष्टि से इस संघर्ष में पीछे नहीं रहा। छोटे-छोटे संघर्षों के अतिरिक्त सन् 1857 में यह क्रान्तिकारियों की कर्मभूमि बन कर उभरा। नाना साहब, तात्या तोपे, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर साहब आदि की रणनीति यहीं पर बनी और क्रियान्वित हुई। इन प्रसिद्ध नामों से इतर जनपद की पहली महिला क्रान्तिकारी ताईबाई ने इस आन्दोलन में सक्रियता दिखा कर क्षेत्र के क्रान्तिकारियों के मध्य एक अलख जगा दी थी। ताईबाई की स्मृति को मिटाने का कार्य तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों द्वारा शुरू कर दिया गया था। उनसे सम्बन्धित समस्त दस्तावेज, वस्तुओं यहां तक कि जालौन स्थित उनके किले को सन् 1860 में जमींदोज करवा दिया गया। अंग्रेजी सरकार की इस कायरतापूर्ण कार्यवाही के बाद भी इस वीर महिला की वीरता का वर्णन करते हुए तत्कालीन झांसी डिवीजन के एक अंग्रेज अधिकारी जे० डब्ल्यू० पिंकने ने लिखा था कि वर्ष 1858 के प्रारम्भ होते-होते दबोह और कछवाघार के कुछ भागों को छोड़ कर पूरा जालौन जिला ताईबाई के अधिकार में आ गया था।

जालौन के राजा बालाराव की मृत्यु पश्चात यहां उत्तराधिकार की समस्या सामने आई। राजा की पत्नी ने एक बालक गोद लेकर राज्य करने का विचार किया मगर उसकी अनुभवहीनता और आपसी झगड़ों में यहां की स्थिति बिगड़ गई। तब स्वर्गीय राजा की पत्नी ने अंग्रेजों से रियासत संभालने का आग्रह किया। तत्पश्चात सन् 1838 में यहां प्रशासक नियुक्त कर दिया गया। इसी दौरान सन् 1840 में गोद लिए बालक गोविन्दराव की मृत्यु हो गई। इस बार अंग्रेजों ने रानी को पुनः गोद लेने की अनुमति नहीं दी और जालौन रियासत को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। जनपद जालौन की पहली महिला क्रान्तिकारी ताईबाई जालौन रियासत के स्वर्गीय राजा बालाराव की बहिन थीं। उनका विवाह सागर के नारायण राव से हुआ था परन्तु विवाहोपरान्त वे अपने पति सहित जालौन के किले में ही निवास करने लगीं। अंग्रेजों से बदला लेने के लिए उनके भीतर स्वाधीनता क्रान्ति का अंकुर फूटने लगा उन्होंने गुपचुप तरीके से अपनी योजना को क्रियान्वित करने का विचार बनाया।

उधर कानपुर में क्रान्ति की शुरूआत होने की सूचना 6 जून 1857 को उरई पहुंची। इसके पश्चात यहां भी क्रान्तिकारियों ने कार्यवाही प्रारम्भ कर दी। क्रान्ति का आरम्भ होते ही जालौन के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन ब्राउन ने भागने में ही अपनी भलाई समझी। कैप्टन ने भागते समय गुरसराय के राजा केशवदास को पत्र लिख कर जालौन में शांति स्थापित करने में सरकारी अधिकारियों की सहायता करने को कहा। राजा केशवदास मौकापरस्त व्यक्ति था, उसने ताईबाई तथा अन्य क्रान्तिकारियों के तेवर देखे तो उसने ताईबाई का साथ देने में ही अपनी बधाई समझी। केशवदास ने अपने दोनों पुत्रों के साथ जालौन आकर अन्य सरकारी अधिकारियों को भगा कर किले पर अधिकार कर लिया। केशवदास के इस कृत्य को ताईबाई आदि ने क्रान्तिकारियों का सहयोग समझकर धन-बल से उसकी सहायता की। इस क्रान्ति में दो अंग्रेजी डिप्टी कलेक्टर पशन्हा और ग्रिफिथ को बन्दी बना लिया गया था। जिन्हें क्रान्तिकारियों की पराजय के साथ ही केशवदास ने परिवार सहित सकुशल कानपुर पहुंचा दिया। इस घटना के बाद से ताईबाई को विश्वास हो गया कि केशवदास अंग्रेजों के लिए कुछ भी कर सकता है।
पराजित क्रान्तिकारी कानपुर से भागकर कालपी आ गये। ताईबाई ने तात्या तोपे के साथ मिलकर केशवदास को वापस गुरसराय जाने पर विवश कर दिया। इस घटना के बाद तात्या ने ताईबाई के पांच वर्षीय पुत्र गोविन्द राव को जालौन की गद्दी पर बिठा कर उनको संरक्षिका घोषित कर दिया। इस कार्यवाही से जालौन में क्रान्तिकारियों की सरकार का गठन हो गया और पेशवाई राज्य की स्थापना हुई। क्रान्तिकारियों की सरकार बन चुकी थी और ताईबाई ने सफल संचालन के लिए प्रधानमंत्री तथा अन्य अधिकारियों की नियुक्ति की। उन्होंने अद्भुत क्षमता से अत्यल्प समय में एक बड़ी सेना का गठन किया। अपनी सूझबूझ और कुशल नेतृत्व क्षमता के कारण सम्पूर्ण जनपद में अंग्रेजों का नामोनिशान भी न रहने दिया। उनकी बढ़ती शक्ति से अंग्रेज भी परेशान थे। एक ओर क्रान्तिकारी घटनाएं हो रही थीं और रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब आदि की गतिविधियों के साथ-साथ ताईबाई का शासन अंग्रेजों को रास नहीं आ रहा था। इस समय तक कालपी क्रान्तिकारी घटनाओं के संचालन का केन्द्र बन चुका था। अंग्रेज भी जालौन के स्थान पर कालपी किले पर कब्जा करना चाह रहे थे। इसका कारण एक तो वे क्रान्तिकारियों की शक्ति को सीधे तौर पर कम करना चाहते थे और दूसरी ओर ताईबाई के साथ संघर्ष में अंग्रेज अपनी शक्ति को कम नहीं करना चाहते थे। अंग्रेजों ने नई कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए उनके सहयोगियों को मिटाना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने युद्ध का नहीं वरन् नरसंहार का सहारा लिया। सबसे पहले हरदोई के जमींदार अंग्रेजी सेना के कोपभाजन बने। एक दर्जन से अधिक क्रान्तिकारियों को खुलेआम पेड़ से लटका दिया गया। अंग्रेजों का नरसंहार जारी रहा। अन्ततः ताईबाई ने नरसंहार रोकने के लिए मई 1858 को अपने पति और पुत्र के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उनकी समस्त सम्पत्ति जब्त कर ली। राजद्रोह और विद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें तथा उनके सहयोगियों को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। ताईबाई की लोकप्रियता और शक्ति से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें जालौन से बहुत दूर मुंगेर-बिहार- भेज दिया गया। यहीं पर कैदी जीवन बिताते हुए उनकी मृत्यु सन् 1870 में हो गई। उनकी मृत्यु के बाद भी अंग्रेज उनकी लोकप्रियता और शक्ति से घबराते रहे। इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके कैदी बेटे को पढ़ने के लिए तो इलाहाबाद भेज दिया गया किन्तु उनके बंदी पति को जालौन में रहने की आज्ञा नहीं दी गई।


छोटे से स्थान पर ताईबाई ने अपनी कार्यक्षमता और कुशल सैन्य संचालन से अक्टूबर 57 से मई 58 तक, सात माह, स्वतन्त्र सरकार की स्थापना कर उसका संचालन किया। जनपद जालौन की इस क्रान्तिकारी महिला को लोग इस कारण से भी नहीं पहचानते हैं कि अंग्रेजों ने यथासम्भव जालौन से उनसे सम्बन्धित सभी वस्तुओं, दस्तावेजों आदि को समूल नष्ट कर दिया था। अंग्रेजों द्वारा लिखे गये भ्रामक इतिहास को पुनः लिखने और सामने लाने की आवश्यकता है, कुछ इसी तरह की पहल की आवश्यकता ताईबाई के गौरवशाली इतिहास को सामने लाने की है। जनपद जालौन की पहली महिला क्रान्तिकारी को इन्हीं समवेत प्रयासों के माध्यम से ही देशवासियों के सामने लाया जा सकता है, तभी हम सभी अन्य वीर-वीरांगनाओं की तरह ही ताईबाई को भी याद रख सकेंगे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

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  2. कितने ऐसे अनजाने स्वतंत्रतासेनानी हमारे लिये अपरिचित रह गये हैं। ताई बाई को सादर नमन। आपको भी अनेक धन्यवाद इस प्रस्तुति के लिये।

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