‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ अर्थात या तो तू युद्ध में बलिदान देकर स्वर्ग
को प्राप्त करेगा अथवा विजयश्री प्राप्त कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा. गीता के इस श्लोक
से प्रेरित होकरदेश के शूरवीरों ने कारगिल युद्ध में दुश्मन को खदेड़ कर सीमापार कर
दिया था. आज से 17 वर्ष पहले भारतीय सेना ने कारगिल पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमाए पाकिस्तानी
सैनिकों को मार भगाया था. इस विजय की याद में और शहीद जांबाजों को श्रद्धांजलि
देने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 26 जुलाई को कारगिल दिवस के रूप में मनाया जाता है.
भारतीय सेना के विभिन्न रैंकों के लगभग 30000 अधिकारियों और जवानों ने ऑपरेशन विजय
में भाग लिया. इस युद्ध में भारतीय आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 527 जांबाज़ शहीद हुए
और 1363 घायल हुए. इनमें से अधिकांश जवान अपने जीवन के 30 वसंत भी नहीं देख पाए थे. इन शहीदों ने भारतीय सेना
की शौर्य व बलिदान की उस सर्वोच्च परम्परा का निर्वाह किया, जिसकी सौगन्ध हर भारतीय सैनिक तिरंगे के समक्ष लेता है.
यह युद्ध बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों तथा पाक समर्थित आतंकवादियों के भारत-पाकिस्तान
की वास्तविक नियंत्रण रेखा (LoC) के भीतर घुस आने का परिणामस्वरूप आरम्भ हुआ. उन लोगों का उद्देश्य सामरिक
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई चोटियों पर कब्जा कर लेह-लद्दाख को भारत से जोड़ने वाली
सड़क पर कब्ज़ा कर सियाचिन ग्लेशियर में देश की स्थिति को कमज़ोर करना था. यदि ऐसा
होता तो यह राष्ट्रीय अस्मिता के लिए खतरा पैदा हो जाता. भारतीय सेना के बार-बार
चेतावनी देने के बाद भी जब पाकिस्तानी सैनिकों और समर्थित आतंकियों ने भारतीय
क्षेत्र को नहीं छोड़ा तो मजबूरन ऑपरेशन विजय को शुरू किया गया.
विडम्बना देखिये, एक तरफ देश विजय दिवस का आयोजन कर शहीदों को श्रद्धासुमन
अर्पित कर रहा है वहीं दूसरी तरह अनेक आयोजनों से ये भी दर्शा रहा है कि देश सेना
के साथ खड़ा है. एक तरह सीमापार सैनिकों, आतंकियों से कारगिल क्षेत्र को मुक्त
करवाए जाने की विजय हम याद कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे सैनिक एक आतंकी की मौत
पर अलगाववादियों के पत्थरों का शिकार हो रहे हैं. एक तरह राजनेता आज विजय दिवस पर
जांबाज़ शहीदों को श्रद्धांजलि दे रहे हैं साथ ही कश्मीर में भारतीय सेना की सशक्त
कार्यवाही का विरोध कर रहे हैं. आखिर ऐसा विरोधाभास क्यों? यहाँ हम सभी को इस तथ्य
का स्मरण करना होगा कि विगत कुछ वर्षों से भारतीय सेना के कार्यों-दायित्वों में
अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है. अब उनके जिम्मे सीमाओं की सुरक्षा मात्र नहीं
है; अब उनके लिए बाहरी दुश्मनों से देश को बचाना मात्र कार्य नहीं है वरन नागरिक
प्रशासन में भी उनकी भूमिका अहम् होती जा रही है. देश के किसी हिस्से में बाढ़ आने
या किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदा आने पर सेना को याद किया जाता है. प्राकृतिक
आपदाओं के अतिरिक्त मानवजन्य स्थितियों से निपटने के लिए भी अब सेना को बुलाया
जाने लगा है. दंगों की स्थिति हो, वर्ग-संघर्ष की स्थिति हो, धरना प्रदर्शन हो
अथवा कोई हिंसक प्रदर्शन, बच्चों के बोरवेल में गिरने की घटनाएँ हों या फिर
निर्वाचन, सभी में स्थानीय प्रशासन के स्थान पर सेना की भूमिका को सराहनीय,
विश्वसनीय माना जाने लगा है. इधर समूचा तंत्र एक अलग तरह की स्थिति से दो-चार होने
लगा है. वर्तमान स्थिति में स्थानीय प्रशासन-शासन में राजनीति इस तरह से हावी हो
चुकी है कि वहाँ पर स्थानीय प्रशासन स्वतंत्रता से निर्णय लेने में लगभग अक्षम साबित
होने लगा है. ऐसी स्थिति में कहीं न कहीं जनता के बीच सेना ही मददगार साबित होती
है. इसके बाद भी स्थिति वो है कि सेना को देश के समर्थन की आवश्यकता पड़ती है. जागरूक
नागरिकों को अपने कृत्यों से बताना पड़ता है कि देश सेना के साथ है.
तथ्यात्मक रूप से आज सेना की आवश्यकता सम्पूर्ण देश को है किन्तु वास्तविकता
ये है कि मीडिया और चन्द स्वार्थी राजनैतिक तत्त्वों के कारण सेना को अलगाववादियों
के विरुद्ध, आतंकियों के विरुद्ध सशक्त कार्यवाही करने में समस्या का सामना करना
पड़ रहा है. आज ये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अपनी जान पर खेलकर देश के लिए
अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने वाले सैनिकों के लिए हम किस तरह का माहौल बना रहे
हैं? सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों द्वारा और समाज का तृणमूल स्तर का व्यक्ति सेना
के प्रति क्या सोच रखता है, एक सैनिक के प्रति किस तरह की भावना रखता है इसे
जानना-समझना भी महत्त्वपूर्ण है. अपने परिवारों से सैकड़ों किमी दूर बैठे सैनिकों
को यदि पर्याप्त सम्मान न मिले, आतंकियों पर कार्यवाही करने की पूर्ण छूट न मिले,
अधिकार होने के बाद भी अधिकारों का उपयोग करने की आज़ादी न मिले, सशक्त होने के बाद
भी भीड़ से पत्थरों की मार सहनी पड़े, कर्तव्य की राह में मानवाधिकार आकर धमकाए तो
ये भविष्य के लिए खतरे का सूचक है. ऐसे बिन्दु कहीं न कहीं सैनिकों के, सेना के
मनोबल को कम करते हैं, उनमें अलगाव की भावना को जन्म देते हैं.
आज देश न केवल सीमा पार के आतंक से वरन सीमा के भीतर भी लगातार आतंक से जूझ
रहा है. ऐसे में प्रयास ये हो कि किसी भी कदम से सेना का मनोबल कम न होने पाए.
सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ-साथ आम नागरिकों का भी कर्तव्य है कि वे सेना के साथ
कदम से कदम मिलाकर चलें. इसके लिए किसी को सीमा पर अस्त्र-शस्त्र लेकर तैनात होने
की आवश्यकता नहीं. सत्ता प्रतिष्ठानों को सेना सम्बन्धी मामलों में अनावश्यक
हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए. उनके लिए साधन, सुविधाओं की इस स्तर पर उपलब्धता हो
कि सैनिक खुद को असहज, सम्मानजनक स्थिति में महसूस न करे. समय-समय पर सेना के
सामने आती असहज स्थितियों पर सत्ता प्रतिष्ठानों को उनके साथ खड़े होने का एहसास
कराना चाहिए. इससे सेना का मनोबल बढ़ेगा और उनमें अलगाव की भावना का विकास नहीं हो
सकेगा. इसी तरह से आम नागरिकों को भी अपने स्तर पर सेना का, सैनिकों का सम्मान करने
की भावना का को विकसित करना चाहिए. हमारे जवानों द्वारा किये गए वलिदानों को, उनकी
जांबाजी को न केवल याद किया जाये वरन उसे समाज में प्रचारित-प्रसारित किया जाये.
नागरिकों की जिम्मेवारी बनती है कि वे सैनिकों के परिजनों को अकेलेपन का शिकार न
होने दें. इसके लिए समय-समय पर उनके प्रति सम्मान समारोहों का, विविध कार्यक्रमों
का आयोजन नागरिक स्तर पर किया जाना चाहिए.
किसी दिन विशेष को शहीदों को, सैनिकों को याद कर लेने की औपचारिकता से बचते
हुए सामूहिक राष्ट्रीय भावना का विकास करना होगा. निस्वार्थ भाव से देश के लिए
कार्य कर रहे सैनिकों के लिए हम सभी को जागना होगा. कारगिल विजय दिवस के सहारे ही
हमें उन सभी सैनिकों का स्मरण करना होगा जो हमारी रक्षा के लिए अपनी जान को जोखिम
में डालते हैं. मातृभूमि पर सर्वस्व न्योछावर करने वाले अमर बलिदानी अब हमारे बीच नहीं
हैं मगर उनकी
यादों को सदैव जिंदा रखना होगा. उनके प्रति सम्मान, श्रद्धांजलि अर्पित करने के
साथ-साथ भारतीय सेना के प्रति, सैनिकों के प्रति भी सम्मान, समर्थन व्यक्त करना
होगा. देश की एकता, अखंडता, स्वतंत्रता के लिए और नागरिकों के सुखमय जीवनयापन करने,
सुरक्षित रहने के लिए ऐसा करना अनिवार्य भी है.
सार्थक सामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकारगिल विजय दिवस पर अमर वीर शहीदों को नमन!