फिल्म अभिनेता तुषार कपूर के सरोगेसी द्वारा पिता बनने के बाद सरोगेसी फिर चर्चाओं
में है. इससे पहले गौरी-शाहरुख द्वारा अपने तीसरे बच्चे के लिए सरोगेसी का सहारा लिए
जाने पर सरोगेसी चर्चा में आई थी. विचारणीय यह है कि शाहरुख़-गौरी दो बच्चों के माता-पिता
थे वहीं तुषार कपूर अविवाहित हैं, चालीस वर्ष से कम उम्र के हैं. आखिर इनको सरोगेसी की आवश्यकता क्यों पड़ी?
स्पष्ट है कि यह तकनीक संतानहीन दम्पत्तियों
के लिए चलन में आई है. इन सेलेब्रिटी के कारण सरोगेसी भले ही आज चर्चा का विषय बनी
हो किन्तु भारत में पहले सरोगेट शिशु के साथ सरोगेसी की शुरूआत 23 जून 1994 को हो गई थी. ये और बात है कि इस तकनीक को वैश्विक स्तर
पर पहचान तब मिली जबकि वर्ष 2004 में एक महिला ने ब्रिटेन में रहने वाली अपनी बेटी के लिए एक सरोगेट शिशु को जन्म
दिया.
सरोगेसी लैटिन शब्द सबरोगेट से बना है जिसका अर्थ है किसी और को अपने काम के लिए
नियुक्त करना. तकनीक रूप से सरोगेसी दो प्रकार, ट्रेडिशनल और जेस्टेटशनल से होती है. ट्रेडिशनल सरोगेसी
में संतान सुख के इच्छु्क दंपत्ति में से पिता के शुक्राणुओं को एक स्वस्थ महिला के
अंडाणु के साथ प्राकृतिक रूप से निषेचित कर सरोगेट माँ के प्राकृतिक अण्डोत्सर्ग के
समय डाला जाता है. इसमें जेनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है. जेस्टेसशनल सरोगेसी
में माता-पिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवाकर भ्रूण को सरोगेट
मदर की बच्चे्दानी में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है. इसमें बच्चे का जेनेटिक संबंध
माता-पिता दोनों से होता है. मूलरूप से प्रजनन विज्ञान की सहायक तकनीक के रूप में विकसित
सरोगेसी के द्वारा ऐसे दम्पत्तियों को संतानसुख प्रदान किया जाता है जो कतिपय कारणोंवश
संतान पैदा नहीं कर पा रहे हैं. उन्हें किसी अन्य महिला को गर्भस्थ करने और गर्भावस्था
के दौरान होने वाले खर्च सहित, उसकी फीस चुकानी होती है. इसी को किराये की कोख या सेरोगेट मदर का नाम दिया गया
है. इस तकनीक का उपयोग एक तरफ तो निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिए कर रहे हैं
साथ ही वे धनवान महिलाएँ भी कर रही हैं जो प्रसूति के दौरान होने वाली तकलीफों से बचना
चाहती हैं.
देखा जाये तो भारत सरोगेसी के लिए सर्वोत्तम प्लेटफ़ॉर्म के रूप में विकसित हुआ
है. एक अनुमान के अनुसार प्रजनन विज्ञान की इस सहायक विधि ने सालाना 63 अरब रुपए से अधिक के कारोबार का रूप ग्रहण कर
लिया है. इसे विधि आयोग ने स्वर्ण कलश का नाम दिया है. भारत में सरोगेसी सम्बन्धी कानून
न होने तथा बच्चा गोद लेने की जटिल प्रक्रिया के कारण यह निःसंतान दम्पत्तियों के लिए
बेहतरीन और पसंदीदा विकल्प बन गई है. भारत में सरोगेसी को नियंत्रित करने के लिए फिलहाल
कोई कानून नहीं है. कानून की अनुपस्थिति में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् ने
क्लीनिकों के प्रमाणन, निरीक्षण
और नियंत्रण के लिए 2005 में दिशानिर्देश
जारी किये थे किन्तु दिशानिर्देशों के उल्लंघन और कथित तौर पर बड़े पैमाने पर सरोगेट
माताओं के शोषण और जबरन वसूली के मामले सामने आने के बाद कानून की आवश्यकता महसूस की
जा रही है. सरोगेसी को कानूनी बनाने के लिए भारत सरकार की पहल पर एक विशेषज्ञ समिति
ने सहायक प्रजनन तकनीक (नियंत्रण) कानून, 2010 का मसौदा तैयार किया. इसमें सरोगेट माताओं के लिए आयुसीमा
21-35 वर्ष के बीच और उसके अपने
बच्चों सहित कुल पाँच प्रसवों को सीमित किया गया है. प्रस्तावित कानून में प्रावधान
किया गया है कि अनिवासी भारतीयों सहित विदेशी नागरिक जो सरोगेसी की चाह में भारत आएंगे,
उन्हें प्रस्तावित कानून के अंतर्गत इस
आशय का प्रमाणपत्र देना होगा कि उनके देश में सरोगेसी को कानूनी मान्यता प्राप्त है
और जन्म के बाद शिशु को उनके देश की नागरिकता दी जाएगी.
चूँकि भारत का विधि आयोग किसी भी रूप में व्यावसायिक सरोगेसी के पक्ष में नहीं
है, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या
केवल परोपकार के तौर पर सरोगेसी का समर्थन किया जा सकता है? सवाल ये भी है कि मात्र परोपकार के लिए कोई महिला सरोगेट
माँ बनने को तैयार होगी? क्या इससे
रिश्तेदारों में सरोगेट माँ बनने का दबाव नहीं बढ़ेगा? इसके साथ-साथ अनेक चिंताएँ भी हैं कि व्यावसायिकता के
चलते समाज पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. विवाह जैसी संस्था जो लिव-इन-रिलेशन के
चलते विखंडन की स्थिति में है सरोगेसी के चलते पूरी तरह बिखर सकती है. गरीब,
अशिक्षित महिलाओं को पैसे का लालच देकर
उनको बार-बार सरोगेसी के लिए मजबूर किया जा सकता है, जिससे उनकी ज़िन्दगी को खतरा हो जायेगा. सरोगेसी के नियमानुसार
किसी भी दुर्घटना के लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता है, न अस्पताल, न डॉक्टर और न संतान चाहने वाला दंपत्ति. उन महिलाओं पर अनावश्यक अत्याचार बढ़ने
की आशंका है जो किसी न किसी रूप में पारिवारिक हिंसा का सामना करती हैं.
भले ही कानूनी विशेषज्ञों की राय में प्रस्तावित मसौदा सही हो. भले ही यह सरोगेट
माताओं और शिशुओं के हितों को सुरक्षा और संतान की चाह रखने वाले अभिभावकों को मददगार
हो किन्तु इसके बाद भी भारतीय सामाजिक ढाँचे को ध्यान में रखते हुए इसे कानून बनाने
से पूर्व सामाजिक, कानूनी और राजनैतिक
क्षेत्रों में व्यापक बहस अपरिहार्य है.
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