एक बार फिर स्त्री और मंदिर विवादों के केन्द्र में है. अबकी शनि देव पर तेल चढ़ाने
को लेकर बवाल मचा हुआ है. ये समझ से परे है कि आखिर ऐसी जागरूक महिलाएँ धर्म के
नाम पर ऐसी आज़ादी की माँग किसके लिए और क्यों कर रही हैं? एक तरफ यही जागरूक और
प्रगतिशील महिलाएँ धर्म को महिलाओं के लिए बंधन, उनको गुलाम बनाने वाला बताती हैं
और दूसरी तरफ यही महिलाएँ सड़कों पर आन्दोलन करने में लगी हुई हैं. समूचे परिदृश्य
को देखकर बहुत कुछ स्पष्ट होता है कि ऐसी महिलाओं का उद्देश्य समाज की अन्य
स्त्रियों को शनिदेव की पूजा करने, उन पर तेल चढ़ाने की आज़ादी दिलवाना नहीं है वरन
किसी न किसी रूप में अपने आपको मीडिया में स्थापित किये रहना ही है. यही वे
महिलाएं हैं जो कुछ समय पूर्व किस ऑफ़ लव का आन्दोलन छेड़े हुए थीं, फिर उसके बाद
यही महिलाएं हैप्पी टू ब्लीड के समर्थन में उतरी और अब धर्म के नाम पर झंडा उठाये घूम
रही हैं.
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सड़क पर आंदोलित इन महिलाओं के हिसाब से औरत को पूरी आज़ादी चाहिए है. सच भी है,
किसी भी इन्सान को महज इस कारण आज़ादी से वंचित नहीं किया जा सकता है कि वो स्त्री
है अथवा पुरुष है. यदि महिलाओं की वास्तविक आज़ादी शनिदेव को तेल चढ़ाने से ही होती
है तो फिर धार्मिकता के नाम पर महिलाओं को गुलाम बनाये जाने का आरोप इस समाज पर
क्यों गढ़ा जाता है? दरअसल ये विरोध न तो धर्म के लिए है, न महिलाओं की आज़ादी के
लिए है वरन ये विरोध केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध है, हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के
खिलाफ है. यहाँ एक बात विशेष रूप से समझने वाली है कि जिन महिलाओं द्वारा समाज में
महिलाओं के लिए अलग व्यवस्था की माँग की जाती हो, ट्रेन में अलग महिला कोच की माँग
की जाती हो, स्कूल, बैंक, बाज़ार आदि की अलग माँग रखी जाती हो वे धर्म के नाम पर ही
समानता क्यों चाहती हैं? समानता की माँग के बाद भी देह की विशिष्टता को बनाये रखकर
ऐसी प्रगतिशेल महिलाएं खुद को ही आरोपी बना रही हैं, अपने आन्दोलन को, अपनी माँग
को कटघरे में खड़ा कर रही हैं.
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देह को विशिष्ट बनाकर उसको भेदभाव का अंग बनाकर पुरुषों को आरोपी बना देना सहज
है और फिर इसी के उलट समानता की बात करना एक तरह का छद्म दिखाता है. परीक्षाओं के
दौरान किसी पुरुष शिक्षक द्वारा किसी छात्रा की तलाशी महज उसके स्त्री होने के
कारण नहीं हो सकती; सड़क चलते किसी स्त्री की देह का अनायास स्पर्श हो जाना भी
पुरुष को बलात्कारी बना देता है; राह चलते किसी स्त्री को देख लेना भी कानूनी
जुर्म हो गया है, तब समानता के लिए एकमात्र स्थान मंदिर ही बचता है. ऐसी जागरूक
महिलाओं को धर्म के साथ-साथ अन्य स्थानों पर जागरूकता, समानता लाने का काम करना
चाहिए. ऐसा नहीं कि महिलाओं का प्रवेश मंदिर में नहीं होना चाहिए; ऐसा भी नहीं कि महिलाओं
द्वारा किसी देव विशेष के पूजन कर लेने से समाज में प्रलय आ जाएगी किन्तु महज प्रचार
की, आत्ममुग्धता
की दृष्टि से किये ऐसा जाने की मंशा को अवश्य निषेध किया जाना चाहिए. एक तरफ मंदिर
में प्रवेश को लेकर आंदोलित होना दूसरी तरफ विरोध के लिए खुद को दैहिक रूप से स्वतंत्र
बना देना कहीं न कहीं आंदोलनरत महिलाओं के दोहरेपन के रवैये को रेखांकित करता है.
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समाज में किसी भी गलत कार्य का विरोध होना चाहिए, किसी भी अमान्य स्थिति
के विरोध में आन्दोलन होना चाहिए मगर महज विरोध की राजनीति के लिए विरोध नितांत भ्रम
की स्थिति है, सर्वथा गलत
है. इन्हीं जागरूक महिलाओं द्वारा उन महिलाओं के पक्ष में अभियान क्यों नहीं छेड़ा जाता
जो आज भी खुले में शौच को मजबूर हैं; जो असमय अपनी शिक्षा को छोड़ दिए जाने को बाध्य कर दी जाती
हैं; जो कम उम्र
में कई-कई बच्चों की माँ बना दी जाती हैं; जो आज भी दहेज़ के नाम पर आये दिन प्रताड़ित की जा रही हैं; जो आज भी कार्यक्षेत्रों
में अपने सहकर्मियों द्वारा शोषित की जा रही हैं; जो आज भी लोकतान्त्रिक रूप से प्रतिनिधि बनने
के बाद भी पारिवारिक पुरुषों की गुलाम बनी हुई हैं; जो समान कार्य करने के बाद भी पुरुषों के समान
अवसरों से वंचित रह जा रही हैं.
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समाज में किसी भी गलत कार्य का विरोध होना चाहिए, किसी भी अमान्य स्थिति के विरोध में आन्दोलन होना चाहिए मगर महज विरोध की राजनीति के लिए विरोध नितांत भ्रम की स्थिति है, सर्वथा गलत है. इन्हीं जागरूक महिलाओं द्वारा उन महिलाओं के पक्ष में अभियान क्यों नहीं छेड़ा जाता जो आज भी खुले में शौच को मजबूर हैं; जो असमय अपनी शिक्षा को छोड़ दिए जाने को बाध्य कर दी जाती हैं; जो कम उम्र में कई-कई बच्चों की माँ बना दी जाती हैं; जो आज भी दहेज़ के नाम पर आये दिन प्रताड़ित की जा रही हैं; जो आज भी कार्यक्षेत्रों में अपने सहकर्मियों द्वारा शोषित की जा रही हैं; जो आज भी लोकतान्त्रिक रूप से प्रतिनिधि बनने के बाद भी पारिवारिक पुरुषों की गुलाम बनी हुई हैं; जो समान कार्य करने के बाद भी पुरुषों के समान अवसरों से वंचित रह जा रही हैं.
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