बचपन से साथ
निभाती चली आई स्याही के कार्यों पर हमेशा से गर्व का अनुभव होता रहा है. उसके
पीछे बहुत बड़ा कारण ये रहा कि हमने और लोगों की तरह स्याही के कार्य को महज लेखन
से ही नहीं जोड़े रखा. स्याही जैसी बहुआयामी प्रतिभा को हमने न तो बचपन में
नियंत्रित रखा और न ही कभी उसके बाद. कुछ लोगों का मानना है कि स्याही का काम
सिर्फ और सिर्फ लेखन के लिए होता रहा है, अब वो भी गुजरे ज़माने की बात हो गई. हमने
तो किसी एक पल को भी ऐसा विचार नहीं किया. बचपन से ही स्याही के बहुआयामी
व्यक्तित्व को पहचान कर उसको विभिन्न तरीके से अपने उपयोग में लाते रहे थे, आज भी
ला रहे हैं. ऐसे में कोई स्याही के बारे में अनर्गल कुछ भी कह दे, उसे आउटडेटेड
बता दे, गुजरे ज़माने का बता दे तो सुनकर बहुत कोफ़्त होती है. इसके साथ-साथ एक अजब
तरीके की समस्या से भी सामना करना पड़ जाता है. जब भी स्याही लेने के लिए बाज़ार जाओ
या फिर नया फाउंटेनपेन माँगो तो दुकानदार चेहरे की अजब भाव-भंगिमा के साथ ऐसे
देखता है जैसे किसी दूसरे ग्रह का प्राणी देख लिया हो. साथ में ऐसे दिखायेगा जैसे
किसी आदिमानव से, आदिकालीन इन्सान से मुलाकात कर रहा हो जिसने ऐसी चीज माँग ली जो
अब इस धरती पर ही उपलब्ध नहीं है. बनती-बिगड़ती सूरत तो ठीक ही है, मगर इसके साथ न
जाने कितनी तरह के आदर्श वचन भी सुनाने लग जाता है वो भौचक्का दुकानदार. कई बार तो
ऐसा देख-सुनकर अपराध-बोध जैसा, हीनता-बोध जैसा महसूस होने लगता है, मानो स्याही
माँग कर खुद के पिछड़े होने का सबूत दे दिया हो.
बहरहाल, लोगों को
स्याही पर कितना भी हीनता का बोध क्यों न आता रहा हो मगर हमें तो बचपन से उसके
मल्टीडाइमेंशनल होने पर गर्व रहा है. बचपन में जब भी इच्छा होती उसी स्याही से
चित्रकारी करने लग जाते. कभी कागज़ पर, कभी दीवार पर तो कभी कपड़ों पर. इसी तरह जब
मन किया तो उसी स्याही से होली का आनंद उठा लिया. सोते में घर-परिवार में
भाई-बहिनों की दाढ़ी-मूँछें उगानी हों तो स्याही को याद कर लिया जाता. इसके अलावा
घर के कई-कई कामों में भी स्याही की प्रतिभा का उपयोग कर लिया जाता. कभी निशान
लगाने के काम, कभी कांच के बर्तनों में भरकर शो-पीस बनाए जाने के काम तक स्याही के
द्वारा ले लिए जाते. हालाँकि अब तो मॉडर्न तरीके के बॉलपेन, रीफिल आने से स्याही
जैसे बहुआयामी पदार्थ की माँग में घनघोर गिरावट देखने को मिली है. अब तो बच्चे भी
उस होली से वंचित रहने लगे हैं जो उस प्रिय स्याही के बाल पर कभी भी खेली जाने
लगती थी.
इधर कुछ समय से
दुकानदारों ने स्याही के स्वरूप को लेकर जिस तरह की भाव-भंगिमा बना-बनाकर मन में
एक तरह का हीनता-भाव पैदा कर दिया था, उससे हमारी प्रिय स्याही के भविष्य पर, उसके
बहुआयामी स्वरूप पर सवालिया निशान लगने शुरू हो गए थे. वो तो भला हो नवोन्मेषी राजनैतिक
परिवर्तकों का, जिन्होंने राजनीति के मैदान में उतर कर स्याही को निम्न स्तर की
मानसिकता वालों की सोच को छिन्न-भिन्न कर दिया, स्याही-प्रेमियों के मन में उपजती
हीनभावना को भी दूर कर दिया. अब तो जब मर्जी होती है, वे लोग भी हमारे बचपने की
तरह होली खेलने में लग जाते हैं. ये और बात है कि इनकी होली में स्याही के रंग का
उतना तीखापन नहीं दिखता है जैसा कि हमारे बचपने की होली में होता था किन्तु चेहरे
पर, दाढ़ी पर, गाल पर, हाथ पर स्याही के चंद छींटे ही अपनी निशानी को पर्याप्त
पुख्ता बनाते हैं. इनकी इस फेंकमफाकी राजनीति से बाज़ार में स्याही का रुतबा एकदम बुलंद
हो गया. हमें अपनी स्याही पर गर्व हो रहा है कि भले ही कोई राजनैतिक कारण रहा हो
मगर उसने बड़ों-बड़ों को भी उसका साथ लेने को मजबूर कर दिया. जिन चेहरों को अपनी
कालिख छिपाने के लिए सफेदी का सहारा लेना होता था, अब वे इसी स्याही के चलते
चेहरों को रंगीन करवा रहे हैं. गर्व इस कारण से भी हो रहा है कि अब स्याही मांगने
पर दुकानदार हमें पिछड़ा नहीं कहेगा, हमें आदिकालीन सभ्यता का प्राणी नहीं समझेगा,
हमारी बहुआयामी व्यक्तित्व स्याही को बिसरायेगा नहीं. उधर टीवी पर वे स्याही से
रँगा चेहरा साफ़ करते दिखाए जा रहे हैं, इधर हमारा दिल स्याही के अनगिनत कार्यों को
याद करते हुए मन ही मन गाना गुनगुनाने लगा कि तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बीटिंग द रिट्रीट 2016 - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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