02 फ़रवरी 2016

मानसिकता बदले तो रुके कन्या भ्रूण हत्या



कन्या भ्रूण हत्या निवारण हेतु सरकार से लेकर समाजसेवी संगठन तक सब चिंतित हैं इसके बाद भी इस कुकृत्य को समाज से दूर नहीं किया जा पा रहा है. इक्कीसवीं सदी में आने के बाद भी, तकनीकी रूप से सशक्त होने के बाद भी, अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित होने के बाद भी गर्भ में बेटियों के मार दिए जाने का कुचक्र लगातार रचा जा रहा है. सरकार द्वारा नित्य ही किसी न किसी रूप में इस कुकृत्य को रोकने सम्बन्धी उपाय किये जा रहे हैं. कानून बनाकर भी बेटियों को बचाने का काम किया गया. इसी कड़ी में केन्द्रीय मंत्री मेनका गाँधी ने अपनी तरह का अनोखा सुझाव देते हुए महिलाओं को गर्भवती होते ही पंजीकृत करने और गर्भस्थ शिशु का लिंग बताने की अनिवार्यता करने को कहा है. उनका ये भी कहना है कि ऐसी महिलाओं के प्रसव को भी सुनिश्चित किया जाये. संभव है कि मेनका गाँधी की अपनी सोच से इस विचार में, इस सुझाव में सशक्तता हो और उनको लग रहा हो कि इससे कन्या भ्रूण हत्या में कमी आएगी या उसकी समाप्ति हो जाएगी किन्तु मानवीय मानसिकता को देखते हुए ऐसा होना असंभव सा ही प्रतीत होता है. गर्भस्थ शिशु लिंग जाँच में सबसे प्रभावी भूमिका डॉक्टर, अल्ट्रासाउंड मशीन की रहती है. यहाँ विचार किया जाना चाहिए कि कोई डॉक्टर हमारे घरों में नहीं आता है कि वो गर्भवती महिला की जाँच करके बताएगा कि गर्भस्थ शिशु बालक है या बालिका. ऐसे लोग जिनकी मानसिकता में सिर्फ और सिर्फ बेटे की चाह होती है वे ही डॉक्टर तक, उस मशीन तक अपनी पहुँच बनाते हैं. ऐसे में जब लोगों की मानसिकता में ही बेटे की चाह हो तो लिंग बता देने से कन्या भ्रूण हत्या रुकना असंभव सा लगता है.
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इस विचार के पश्चात् उत्पन्न होने वाली स्थितियों पर भी विचार किया जाना आवश्यक है. आज भी तकनीकी रूप से समृद्ध होने के बाद भी सरकारी तंत्र इतना प्रभावी नहीं है कि सभी गर्भवती महिलाओं का पंजीकरण किया जा सके. इसके बाद भी मान लिया कि यदि सरकार अपने इस प्रयास में किसी तरह सफल हो जाती है तो भी अनेकानेक आशंकाएं, स्थितियां ऐसी हैं जिनके द्वारा कुप्रवृत्ति समाप्त होना कठिन लगता है. कन्या भ्रूण हत्या रोकथाम हेतु बने पीसीपीएनडीटी अधिनियम के अनुसार ऐसा करना जुर्म भले ही माना गया हो मगर एमटीपी एक्ट के अनुसार कुछ परिस्थितियां ऐसी हैं जिनमें गर्भपात किया जाना सुनिश्चित किया गया है. इसमें सबसे प्रभावी स्थिति यही बनती है कि गर्भस्थ शिशु में यदि किसी तरह  की बीमारी अथवा असामान्यता पाई जाये तो गर्भपात किया जा सकता है. इसी तरह यदि गर्भवती महिला को किसी तरह खतरा गर्भ धारण किये रहने से होने की सम्भावना है तो भी गर्भपात करवाया जा सकता है. इसके अलावा प्राकृतिक रूप से होने वाले गर्भपात को किस तरकीब से, किस तकनीक से रोका जाना संभव होगा, ये सुनिश्चित नहीं किया जा सका है.
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ऐसे में कहीं न कहीं ऐसे लोगों को वरदान ही दिया जा रहा है जो गर्भ की जाँच करवाने के लिए आतुर दिखाई देते हैं, कन्या भ्रूण हत्या करने को आकुल रहते हैं. उन डॉक्टर्स के लिए भी सुगमता के रास्ते इस विचार से खुलते नजर आते हैं जो सजा के भय से चोरी-छिपे बेटी का गर्भपात करने का कुत्सित व्यापार करने में संलिप्त हैं. बेहतर तो ये है कि गर्भवती महिलाओं के पंजीकरण को अनिवार्य किया जाये और इसको सुनिश्चित किया जाये कि नौ माह पश्चात् उसको प्रसव हुआ अथवा नहीं? प्रसव हुआ तो उसमें होने वाला शिशु क्या है? यदि प्रसव नहीं हुआ तो उसके पीछे कारण क्या रहे? यदि गर्भवती महिला ने गर्भपात करवाया है तो उसके पीछे की स्थितियां क्या थी? ऐसे में गाँव-गाँव तक फैले सरकारी तंत्र, आशा बहुओं, आँगनवाड़ी कार्यकर्तियों, लेखपालों आदि के द्वारा जानकारी एकत्र की जा सकती है. यहाँ विचारणीय लिंग बताना न होकर मानसिकता बदलाव होना चाहिए. ऐसे में जबकि महिलाओं की जागरूकता को देह-विमर्श में, मंदिर-विवाद में केन्द्रित कर दिया गया है; बेटियों की उपलब्धियों को किसी कोने में दबा दिया गया है तब अनिवार्य रूप से लिंग बता देने का सुझाव किसी भी रूप में बेटियों की गर्भ में होती हत्या को रोकने में नाकाम ही रहेगा.
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