भारतीय समाज सदैव से परम्पराओं
और मान्यताओं से संपन्न रहा है, जहाँ संबंधों
और रिश्तों को गरिमापूर्ण तरीके से निभाया जाता रहा है. ऐसे समाज में अब आये दिन
संबंधों और रिश्तों की पावनता को ठेस पहुँचाई जा रही है; रिश्तों
और संबंधों की गरिमा को तार-तार किया जा रहा है. अब नित्यप्रति रिश्तों को कलंकित करने
वाले समाचारों से दो-चार होना पड़ता है. हत्या, बलात्कार,
डकैती, अपहरण जैसी जघन्य वारदातें रक्त-संबंधों
में अब सहजता से देखने मिलने लगी हैं. ऐसी घटनाओं पर समाज अपने को शर्मसार बताता
है किन्तु अगले ही क्षण ऐसी ही वारदात हो जाती है. समाज का लगातार शर्मसार होना और
लगातार इस तरह की वारदात करते जाना अपने आपने अद्भुत है. लगता है जैसे समूचा समाज ऐसी
वारदातों का अभ्यस्त हो गया है. यदि अब ऐसी किसी भी घटना पर विरोध होता है तो
सिर्फ नेतागीरी चमकाने के लिए, प्रशासन को हलकान करने के लिए,
मीडिया में छा जाने के लिए.
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समाज में पहली कोशिश इस
बात की होनी चाहिए थी कि ऐसी वारदातें न हों, रिश्ते कलंकित न हों. देखा जाये तो पर्व, त्यौहार, आयोजन आदि
इसी सबके लिए हुआ करते रहे हैं. धार्मिक आयोजन हों अथवा पारिवारिक समारोह, सभी का
उद्देश्य कहीं न कहीं रिश्तों को सशक्त बनाना रहा है, संबंधों की गरिमा को बढ़ाने
का रहा है. आज इसके उलट इन पर्वों, त्योहारों के द्वारा रिश्तों को कलंकित करने का
काम किया जा रहा है, संबंधों को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है. किसी भी आयोजन का,
किसी भी रिश्ते का, किसी भी सम्बन्ध का तात्पर्य सेक्स से, दैहिक
संतुष्टि से जोड़ा जाने लगा है. इस तरह से दर्शाने का प्रयास किया जा रहा है कि आपसी
संबंधों में स्वार्थ है, शरीर है, यौनेच्छा है, इसके अलावा संबंधों की, रिश्तों की
कोई पहचान नहीं. इसको संसार के सबसे पवित्र रिश्ते – भाई, बहिन के रिश्ते के
माध्यम से समझा जा सकता है. भाई-बहिन के पवित्र प्रेम, स्नेह के परिचायक पर्व
रक्षाबंधन को भी कतिपय लोगों द्वारा कलंकित कर दिया गया है. राखी बंधवाकर रक्षा
करने का वचन देने के बाद भी कुछ कुकर्मी भाइयों द्वारा उसी बहिन के साथ छल किया
जाता है. लगभग ऐसी ही विकृति सभी संबंधों के बीच दिखाई देने लगी है.
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बहरहाल स्थितियाँ बहुत ही
विकट हैं और इनका जल्द से जल्द समाधान किये जाने की आवश्यकता है. इसके लिए
सर्वप्रथम संबंधों और रिश्तों की महत्ता सबको समझनी और समझानी होगी. आज जिस तरह से
संयुक्त परिवार एकल और नाभिक परिवारों में बदलते जा रहे हैं उससे भी ऐसी समस्याएं
बढ़ी हैं. ऐसे में हम सभी को परिवार की महती भूमिका को समझना होगा. संस्कारों, परम्पराओं, पर्वों,
त्योहारों को रूढ़ियों के रूप में परिभाषित किया जाने लगा है, इससे भी गरिमामयी वातावरण समाप्त सा हुआ है. आने वाले समय को और अधिक
विकृति से बचाने हेतु संस्कृति, सभ्यता, संस्कार आदि पर विशेष बल देने की आवश्यकता है. यदि आधुनिकता के नाम पर इन
सबको विस्मृत किया जाता रहा तो एक दिन सिवाय दैहिक रिश्तों,
संबंधों के अन्य कोई रिश्ता या सम्बन्ध नज़र नहीं आएगा.
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