04 सितंबर 2015

कहाँ ले जाएगी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति


दिल्ली में एक सड़क का नाम बदलकर पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक कलाम साहब के नाम पर रख दिया गया तो बहुतों ने खुशियाँ प्रदर्शित की तो कई जगहों से इसके विरोध में भी स्वर उठे. खुश होने वालों को लगा कि किसी सड़क को तो आतताई से मुक्ति मिली तो औरंगजेब का समर्थन कर रहे लोगों ने अपनी मानसिकता को ही दर्शाया है. उनको उस मुसलमान के नाम का समर्थन करना ज्यादा उपयुक्त लगा जिसने देश पर आक्रमण किया, देश में गैर-इस्लामिक लोगों पर अत्याचार किये, हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर जबरन कब्ज़ा कर इस्लामिक मजहबी इमारतों का निर्माण करवाया. उनके द्वारा तर्क दिए जा रहे हैं कि औरंगजेब धर्मनिरपेक्ष शासक था, कुरान की नक़ल करके, टोपियाँ सिल-सिल करके वो अपना गुजारा किया करता था. ये बातें कितनी सत्य हैं ये तो इतिहास में दर्ज है किन्तु व्यावहारिक रूप से उस शासक के हिंसक होने की बातें भी इतिहास में मिलती है. ऐसी बातों के आलोक में यदि क्षणिक आकलन किया जाये और वास्तविकता को, वर्तमान को टटोला जाये तो कोई भी आसानी से कह सकता है कि औरंगजेब का हिंदुस्तान से सम्बन्ध एक आक्रान्ता का ही रहा है. ऐसे में किसी आक्रान्ता के नाम पर किसी भी सड़क, किसी भी इमारत का नाम अपने आपमें दर्शाता है कि हम गुलामी की मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके हैं. हमने अपने दिमाग से अभी अपने आक्रान्ताओं को भुलाने की मंशा नहीं बनाई है. इसके उलट यदि नाम बदलने के विरोधियों के साथ महज इसलिए खड़ा हुआ जाए कि विरोधी लोग मुस्लिम हैं तो कलाम साहब के साथ इन लोगों का न खड़ा होना अपने आपमें अचंभित करने वाला है. एक पल को इस्लामिक रूप से ही स्वीकार्यता मानी जाये तो फिर कलाम साहब का नाम स्वीकार करने में किसी मुस्लिम को क्या आपत्ति है? कलाम साहब के नाम पर सहमति न बनने का कारण कहीं ये तो नहीं कि उन्होंने हिन्दुओं पर ज़ुल्म नहीं किये; उन्होंने गैर-इस्लामिक इमारतों का निर्माण किसी अवैध कब्ज़े पर नहीं करवाया; उन्होंने गैर-मुस्लिमों पर कभी कहर नहीं ढाया? शायद ये स्थिति बताती है कि सड़क के नए नामकरण का विरोध वे मुस्लिम ही कर रहे हैं, जिनकी मानसिकता में हिन्दुओं को मानसिक, शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शामिल है. अन्यथा की स्थिति में कलाम साहब के नाम पर इनको भी सहमत होना चाहिए था.

ये समझ से परे है कि सरकार के इस फैसले पर ख़ुशी व्यक्त की जाये या फिर खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करते हुए विरोधियों के सुर से सुर मिला लिया जाये? कितनी बड़ी विडम्बना है कि औरंगजेब जैसे शासक के नाम पर आधारित सड़क का नाम  बदलने पर भी इस देश में सियासत होने लगी है. अभी इससे उबरकर कुछ और विचार कर पाते कि देश के उप-राष्ट्रपति जी ने मुस्लिमों के हितार्थ सोचने की सलाह सरकार को दे डाली. राजनीतिज्ञों के द्वारा तो लम्बे समय से मुस्लिम तुष्टिकरण की बातें सामने आती रही हैं किन्तु किसी संवैधानिक पद पर आसीन किसी व्यक्ति के द्वारा ऐसी बातें करना आश्चर्य में डालता है. आश्चर्य इस कारण भी होता है कि वे स्वयं उसी मजहब से हैं, जिस मजहब के प्रति लापरवाह होने का आरोप सा वे सरकार पर लगाते हैं. जिस देश में तीसरा राष्ट्रपति ही मुस्लिम रहा हो, जिस देश में एक मुसलमान पूर्व राष्ट्रपति के निधन पर सारा देश रोया हो, जिस देश में मुसलमानों के मजहबी स्थानों पर जाने वाले हिन्दुओं की संख्या में कमी नहीं होती है वहाँ इस तरह की बातें कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित लगती हैं. संभव है कि किसी-किसी स्थान पर कतिपय स्थितियों के चलते मुसलमान अपने आपको राष्ट्र की, समाज की मुख्यधारा से अलग समझने लगते हों किन्तु ये किसी भी रूप में सत्य नहीं है कि देशवासियों ने मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार किया है. इतिहास गवाह है कि इस देश में सर्वधर्म सदभाव की भावना सदैव से रही है. सभी धर्मों में आपस में प्रेम-स्नेह देखने को मिलता रहा है. सभी धर्मों के पर्व-त्योहारों में सबकी सहभागिता देखने को मिलती है. ऐसे में चंद लोगों द्वारा धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता का हवाला देकर माहौल को बिगाड़ने की कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए.

इन्हीं सबके बीच खबर आई है कि एक विद्यालय में राखी बांधकर आने वाले बच्चों की राखियाँ उतरवा ली गईं, लड़कियों की हथेलियों में लगी मेंहदी को पत्थर से रगड़-रगड़ छुड़वाया गया. इस तरह की स्थितियाँ भी समाज में सौहार्द्र पैदा करने के स्थान पर कटुता का वातावरण निर्मित करती हैं. हालात वाकई गंभीर हैं, कहीं न कहीं एक शांति के पीछे, एक चुप्पी के पीछे बहुत बड़े धमाके की आशंका पल रही है, बहुत तीव्र विस्फोट की आशंका दिख रही है. विरोध के छोटे-छोटे स्वरों के पीछे की भयावहता को समझना होगा और आने वाले पल के साथ आने वाली आशंका की आहट को भी सुनना होगा. कहीं कोई आने वाला पल प्रलयकारी न हो, समाज के लिए घातक न हो, इंसानियत के लिए कष्टकारी न हो. आइये विचार करें कि समाज में यत्र-तत्र फैले चंद फिरकापरस्तों से कैसे निपटा जाये.

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