जब कभी कोई अप्रत्याशित
बोल बोलता है तो उसके बारे में कहा जाता है कि मेंढकी को भी खांसी आने लगी है. कुछ
ऐसा ही पाकिस्तान की हरकतों को देखकर कहा जा सकता है. वार्ता न हो सकी और खुद को
कई-कई बार घिरा हुआ पाने पर खिसियाना स्वाभाविक था, सो अपने भय को दूर करने के लिए
भारत देश को डराना चाहा. परमाणु बम होने का धमकीनुमा बयान आने के बाद लगा कि क्या
पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा. इस बारे में कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए क्योंकि
उस पिद्दी के शोरबे की यही फितरत है. सोचा जा सकता है जिस देश की बुनियाद नफरत पर, खून-खराबे पर, धोखे पर टिकी हो वो किस तरह
से प्रेम का, शांति का सबक सीखेगा? उनकी
तो जो है सो भली चलाई है, पर अब हमें तय करना होगा कि हमारे
लिए पाकिस्तान से दोस्ती-दुश्मनी के मायने क्या हैं? हम एक
तरफ चिल्लाते घूमते हैं कि कश्मीर हमारे देश का अटूट हिस्सा है वहीं दूसरी तरफ
पाकिस्तान वहां के आतंकवादी को स्वतंत्रता सेनानी का दर्ज़ा देते हुए भारत के
न्यायालय को, संसद को मानने से इंकार करता है. क्या कहा जाये
किसी समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री तक ने घाटी का माहौल ख़राब होने की आशंका
(धमकी जैसे स्वर में) व्यक्त की थी.
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सबसे बड़ी बात है कि जिस
देश के राजनैतिक दलों में राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर भी एकता नहीं दिखती
वहां पडोसी देश भी आँखें दिखाने लगते हैं. केन्द्र में भाजपा सरकार आने के बाद से
दक्षिण एशिया क्षेत्र में भारत की ओर से लगातार इसके प्रयास किये गए कि सभी देशों
के मध्य मधुर सम्बन्ध रहे. इसके लिए स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पडोसी
देशों की यात्रा करना उचित समझा, शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों को बुलाना
अनिवार्य समझा. इसके बाद भी जिनको भाजपा सरकार के, मोदी के किसी भी काम में सिर्फ
और सिर्फ साम्प्रदायिकता दिखती है, देश का अहित दिखता है उनको मोदी मात्र विदेशों
में यात्रा करते दिखते हैं. समझा जा सकता है कि एकाएक ही सभी समस्याओं का हल नहीं
निकल आएगा किन्तु ऐसा भी नहीं है कि देश के पड़ोसी देशों में वर्तमान सरकार का कोई
प्रभाव ही नहीं हुआ है. अब जबकि पाकिस्तान की हरकतों से ये साफ़ जाहिर हो चुका है कि
वो किसी भी रूप में शांति नहीं चाहता है तब केन्द्र सरकार को भी कोई ठोस नीति
अपनाने की आवश्यकता है. लगातार पकडे जाते पाकिस्तानी आतंकवादी, उच्च स्तरीय
वार्ताओं से भाग जाना, अलगाववादियों के साथ सम्बन्ध बनाये रखना, भारत में अशांति
फ़ैलाने वाले आतंकियों को शरण देना, शांति समझौतों के बदले में परमाणु बम होने की
धमकी देना आदि ऐसी घटनाएँ हैं जो पाकिस्तान की पोल खोलती हैं. ऐसे में उनसे अमन की, भाईचारे की, सौहार्द्र की आशा करना अपने
आपमें बेमानी है. राजनैतिक रूप से, कुटनीति के रूप में भी उस
ओर से कभी भी सकारात्मक माहौल बनता दिखा नहीं है, जो भी,
जितने भी कदम उस ओर से उठाये गये हैं वे कहीं न कहीं एक प्रकार का
दिखावा ही साबित हुए हैं. पाकिस्तान का मूल स्वरूप देखकर उससे प्रत्येक पल में ऐसे
ही कुकृत्य की आशा रहती है. इससे पहले एक-दो बार नहीं, कई-कई
बार उसने तमाम सारे नियमों, संधियों का उल्लंघन करके भारतीय
सीमा में प्रवेश किया है, हमारी धरती को रक्तरंजित किया है. उसको
अपने इस रक्तरंजित कारनामें में हमारे सैनिक का सिर काट ले जाने जैसा वीभत्स पहलू
और जोड़ना था सो उसने जोड़ लिया.
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माना कि युद्ध किसी भी
समस्या का समाधान नहीं होता किन्तु कभी-कभी बिगडैल बालक को सुधारने के लिए उसको
एक-दो चपत लगाना जरूरी होता है, ठीक वही
हाल यहाँ करने की जरूरत है. अंतिम विकल्प के रूप में पाकिस्तान को समझाने का
एकमात्र तरीका युद्ध ही है. हमारी सरकार हमारे ही धन का उपयोग सीमा-सुरक्षा के लिए
करती है और इसके बाद भी हमारे सैनिकों को कहीं न कहीं हताशा और निराशा ही हाथ लगती
है. हालाँकि इस बार बहुत सालों के बाद ऐसा हुआ है कि सीमा पर हमारे सैनिकों को
जवाब देने के लिए किसी आदेश का इंतज़ार नहीं करना पड़ा है. यह सत्य है कि युद्ध किसी
भी समस्या का हल नहीं किन्तु पाकिस्तान जैसे देशों को समझाने का एक और एकमात्र
रास्ता युद्ध ही है. यदि आकलन किया जाये तो हमारे देश का केन्द्रीय नेतृत्व जितनी
धनराशि सीमाओं की सुरक्षा में, सीमा पर शांति बनाये रखने में
खर्च करती है उसके एक छोटे से हिस्से को खर्च करके पाकिस्तान को हमेशा-हमेशा के
लिए समझाया जा सकता है. सारी वास्तविकता को समझने के बाद, पाकिस्तान
की करतूतों को जानने के बाद, इन हरकतों के अंतिम परिणाम को
पहचानने के बाद भी केन्द्रीय नेतृत्व मौन क्यों है? अभी तक जितनी चपतें पाकिस्तान
को पड़ी हैं उनकी कल्लाहट वो भूल चुका है. भविष्य में वो पिद्दी का शोरबा अपनी
हरकतों को न दोहराए इसके लिए फिर से वैसी ही कल्लाहट का एहसास करवाया जाना आवश्यक
है जैसा कि पहले वो एहसास कर चुका है.
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बेहतरीन , बहुत खूब , बधाई अच्छी रचना के लिए
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