वर्तमान परिदृश्य में समाज
का बहुसंख्यक वर्ग वैवाहिक संबंधों के प्रति नकारात्मकता दिखाने में लगा हुआ है.
किसी न किसी कारण से पति-पत्नी के आपसी संबंधों में बिखराव की स्थिति आ रही है.
इसके पीछे के कारण अपने आपमें शोध का विषय हो सकते हैं किन्तु वैवाहिक संबंधों से
वितृष्णा सी दर्शाती वर्तमान युवा और स्वच्छंद पीढ़ी एक नए रिश्ते को नाम देकर समाज
में नई संकल्पना को प्रस्तुत कर चुकी है. इस नई संकल्पना को लिव-इन-रिलेशन के नाम
से जाना-पहचाना जा रहा है. महिला मुक्ति के समर्थक ऐसे विषय का समर्थन करते आसानी
से दिख जाते हैं जहाँ शारीरक संबंधों में स्वतंत्रता मिलती हो जबकि संस्कृति की
रक्षा का झंडा उठाये घूमते लोग ऐसे विषयों के विरोध में दिखते हैं. देखा जाये तो दोनों
पक्षों के लोग एक तरह की कट्टरता का पालन ही करते हैं. इन लोगों को विषय की
गंभीरता, समाज पर उसका प्रभाव, उसकी दीर्घकालिकता का कोई अर्थ नहीं होता, उन्हें तो
सिर्फ और सिर्फ अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते देखा जाता है. लिव-इन-रिलेशन
भी इसी तरह का विषय है जो एक तरफ स्त्री-स्वतंत्रता का आयाम तय करता है वहीं दूसरी
तरफ महिलाओं की स्थिति को ही नकारात्मकता प्रदान करता है.
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भूमंडलीकरण के इस दौर में जबकि
युवा वर्ग कैरियर की जद्दोजहद में लगा हुआ है, उसके लिए वर्तमान में विवाह से ज्यादा
महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल करना होता है; अधिकाधिक धनार्जन करना होता है; ऐशो-आराम
के समस्त संसाधनों को प्राप्त कर लेना होता है. इस आपाधापी के चलते युवाओं में
विवाह संस्था के प्रति विश्वास समाप्त सा होता जा रहा है. किसी तरह की सामाजिकता उन्हें
इस संस्था में नहीं दिखती है वरन उनके लिए यह एक प्रकार के प्रतिबन्ध सा होता है.
बिना किसी प्रतिबन्ध, बिना किसी जिम्मेवारी, स्वतंत्र भाव से जीने की संकल्पना, अकल्पनीय
स्वतंत्रता के बीच शारीरिक संबंधों की स्वीकार्यता ने ही लिव-इन-रिलेशन को जन्म
दिया. इस तरह के सम्बन्ध नितांत दैहिक आकर्षण और उसकी माँग और आपूर्ति जैसे क़दमों
की देन हैं और ऐसे सम्बन्ध यदि दीर्घकालिक, पूर्णकालिक नहीं
हैं तो इनका सर्वाधिक नुकसान महिलाओं को ही उठाना पड़ता है.
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इसमें कहीं कोई दोराय नहीं
कि प्राकृतिक रूप से स्त्री-पुरुष की शारीरिक स्थिति नितांत भिन्न रही है. सामाजिक
प्रस्थिति को सफलता के बिंदु पर ले जाने के बाद भी महिलाओं का अपनी विभिन्न
शारीरिक क्रियाओं, उसकी गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं रहा है. यही कारण है कि जहाँ एक तरफ
महिलाओं सम्बन्धी गर्भ-निरोधक साधनों की, गर्भ रोकने के
उपायों की बाज़ार में भरमार हुई है वहीं दूसरी तरह गर्भपातों की, बिन-व्याही माताओं की, कूड़े के ढेर पर मिलते नवजातों
की संख्या में भी अतिशय वृद्धि हुई है. ये समूची स्थितियाँ सिर्फ और सिर्फ महिलाओं
को प्रभावित करती हैं. यदि लिव-इन-रिलेशन जैसे सम्बन्ध आपसी सामंजस्य से विवाह
संस्था से बचने के लिए हैं; शारीरिक संबंधों की निर्बाध
स्वीकार्यता के लिए है; अल्पकालिक दैहिक सुख के लिए है तो
सहजता से कहा जा सकता है कि ऐसे सम्बन्ध असामाजिकता को ही बढ़ायेंगे. लिव-इन-रिलेशन
जैसे संबंधों में किसी भी समय पर लड़के द्वारा लड़की को छोड़ देने, किसी और लड़की के
साथ लिव-इन में चले जाने, इस रिलेशन में रहने वाली लड़की के गर्भवती होने, कई-कई
शारीरिक संबंधों से होने वाले यौन-रोगों आदि दुष्परिणाम भी सामने आने की आशंका बनी
रहती है. देखा जाये तो कैरियर के लिए अल्पकालिक अथवा पूर्णकालिक वैवाहिक रिश्तों
का नकार किसी भी व्यक्ति का निजी निर्णय हो सकता है मगर ऐसे निर्णयों की आड़ में
लिव-इन-रिलेशन का बनाया जाना संभवतः सामाजिक नहीं है. सामाजिक संरचना में विवाह
यौन-संबंधों की स्वीकार्यता मात्र नहीं है अपितु सृष्टि के विकास की अवस्था में
सहगामी कदम भी है. इसके द्वारा जहाँ पारिवारिक संरचना का विकास होता है वहीं
सामाजिकता भी अपना विकास करती है. ऐसे में लिव-इन-रिलेशन की सामाजिक-कानूनी
मान्यता-स्वीकार्यता के पूर्व खुले मंच से इस पर बहस हो,
खुले दिल-दिमाग से इसके समस्त पहलुओं पर चर्चा हो, सकारात्मक
दृष्टि से इसके नैतिक-अनैतिक रूप का आकलन हो. ऐसा करना न सिर्फ वर्तमान के लिए वरन
भविष्य के लिए भी उचित कदम होगा.
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