एक तरफ मोमबत्तियां लेकर निकलते लोग, दूसरी तरफ पोर्न
साइट्स पर प्रतिबन्ध का विरोध करते लोग, क्या कहा जाये कि भटकाव का दौर चरम पर है
या फिर हम सभी भटकाव का शिकार हैं? विरोध की राजनीति इस कदर होने लगेगी ऐसा सोचा
जाना मुमकिन न था मगर जिस तरह से पोर्न साइट्स के प्रतिबन्ध को लेकर लोग मुखर होकर
सामने आये उससे लगा कि नहीं, विरोध करने के लिए किसी भी निर्णय का विरोध किया जा
सकता है. बिना आगा-पीछा सोचे कि पोर्न साइट्स का होना अथवा न होना हमारे घर,
परिवार, बच्चों पर क्या प्रभाव डालेगा, हमने विरोध का झंडा बुलंद कर लिया. इस
बुलंद किये गए झंडे के नीचे विरोधी स्वर अब गौरवान्वित महसूस कर रहे होंगे कि उनके
जबरदस्त विरोध के चलते सरकार को अपना निर्णय चंद घंटों में ही बदलना पड़ा. विरोधी
किस आत्मविश्वास से कहने में लगे थे कि आखिर सरकार को ये अधिकार किसने दिया कि अब
वो तय करे कि लोगों को क्या देखना है, क्या नहीं. दलील इस बात की कि आखिर
व्यक्तिगत रूप से क्या देखना, दिखाना चाहिए ये व्यक्ति के अपने विवेक पर हो. सही
भी है, होना भी यही चाहिए पर क्या इस होने में, इस स्वतंत्रता में अपने परिवार को
संयुक्त रूप से शामिल किया जा सकता है? क्या अपने माता-पिता, भाई-बहिन, बेटी-बेटा
के साथ बैठकर इन साइट्स का ‘आनन्द’ उठाया जा सकता है? स्वतंत्रता की दृष्टि से
क्या अपने घर-परिवार के सदस्यों के साथ ऐसी साइट्स के दृश्यों की चर्चा की जा सकती
है? यदि ऐसा हम अपने परिवार के सदस्यों के साथ नहीं कर सकते तो फिर किसके लिए था
विरोध? क्या महज अपनी कामेच्छा को आभासी रूप से संतुष्टि देने के लिए? कहीं न कहीं
इस पोर्न कारोबार का एक हिस्सा बनने के लिए? या फिर मात्र इस कारण कि केन्द्र
सरकार का विरोध करना है?
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समाज में इधर लगातार यौन दुष्कर्म की घटनाएँ बढ़ रही हैं,
बलात्कार-सामूहिक बलात्कार की खबरें नित्य ही सामने आ रही हैं, छोटी-छोटी मासूम
बच्चियों तक को अब शिकार बनाया जा रहा है, ऐसे में पोर्न साइट्स के प्रतिबन्ध को
सकारात्मक रूप से लिए जाना चाहिए था. अरबों-खरबों के कारोबार को एक झटके में प्रतिबंधित
कर देना किसी भी सरकार के बूते की बात नहीं है, इसके बाद भी यदि ऐसा कोई कदम उठाया
गया था तो उसके समर्थन में पुरजोर तरीके से आना चाहिए था मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. बलात्कार
की घटनाओं के साथ उठती बहस में हर बार पहनावे को लेकर सवाल खड़े होते हैं और उतनी
ही बार उसके विरोध के स्वर सुनाई देने लगते हैं. ये माना जा सकता है कि पहनावा
शत-प्रतिशत बलात्कार, छेड़छाड़ में प्रभावी नहीं होता मगर इस बात से इनकार नहीं किया
जा सकता है कि दृश्य का मानव-मष्तिष्क पर सर्वाधिक प्रभाव होता है. दृश्य-श्रृव्य
माध्यम हमेशा से मानसिकता को प्रभावित करने में अहम् रहा है, उसके द्वारा सहज रूप
में दिमागी परिवर्तन किये जा सकते हैं, दृश्य का प्रभाव लम्बे समय तक और बहुत
गहराई तक होता है. पोर्न साइट्स के दृश्यों का देखा जाना, अंग-दिखाऊ वस्त्रों का
पहना जाना, देहयष्टि के उभारों को कामुकता-पूर्ण तरीके से प्रदर्शित करते वस्त्रों
को धारण करना आदि कामुक इंसान के मन-मष्तिष्क को सेक्स-संबंधों की दृष्टि से प्रभावित
करता है. ऐसी स्थिति में जिस व्यक्ति के पास शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने की सुलभता
है, जिस व्यक्ति के पास अपनी कामुकता को शांत करने का कोई सहज रास्ता है वो तो
अपनी मानसिक उद्देलना से बाहर निकल आता है. इसके उलट वे व्यक्ति जो अपनी यौनेच्छा
को शांत करने का मार्ग नहीं तलाश पाते हैं, उनके पास कोई सुगम रास्ता नहीं है वे
दुष्कर्म की घटनाओं को अंजाम देने लगते हैं. यहाँ उन व्यक्तियों को अपवादस्वरूप
समझा जा सकता है जो सब कुछ सहज उपलब्ध होने के बाद भी यौनिक दुष्कर्म को अंजाम
देते हैं, ऐसे लोगों को यौन-विकृत कहा जा सकता है.
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बहरहाल, विरोधी अपने मकसद में कामयाब रहे. पोर्न साइट्स से
प्रतिबन्ध हट गया सिर्फ चाइल्ड पोर्नोग्राफी वाली साइट्स पर ही प्रतिबन्ध रहेगा.
ऐसे में इन्हीं विरोधियों से सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर कौन तय करेगा कि चाइल्ड
पोर्नोग्राफी वाली साइट्स कौन-कौन सी हैं? वैसे भी, इन विरोधियों के मन का हो गया
है तो वे सब अपने-अपने कमरों में घुसे पोर्न साइट्स का आनंद उठाने में लगे होंगे
और हो सकता है कि उनके बच्चे उनकी आँखों से दूर कहीं बंद कमरे में इसके लाइव
संस्करण का आनन्द उठा रहे हों. आखिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता तो सबके लिए एकसमान है.
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