आतंकवादी को फाँसी की सजा सुनाई गई, समाज के बुद्धिजीवियों
के एक वर्ग ने इसके विरोध में अपना स्वर बुलंद किया. मिले सुर मेरा तुम्हारा की
तर्ज़ पर समाज के विभिन्न क्षेत्रों से लोगों ने अपनी-अपनी आवाजें तेज़ करनी शुरू की
और समाज में एक आतंकवादी के पक्ष में भी लोग खड़े दिखाई दिए. इस भीड़ में ऐसे चेहरे
सामने आये जिनको समाज में परिवर्तन का द्योतक बताया जाता रहा है, जिनको समाज में
सक्रियता लाने का सूचक साबित किया जाता रहा है, जिनको समाज में जागरूकता फ़ैलाने
वाला माना जाता रहा है. इन चेहरों की अतिशय सक्रियता के चलते वैश्विक स्तर पर
भारतीय कानूनी व्यवस्था को घेरे में खड़ा करने की कोशिश भी की गई. ऐसा साबित करने
का प्रयास किया गया मानो समूचे विश्व में एकमात्र भारत देश में फाँसी की सजा दिए
जाने का प्रावधान है; कुछ इस तरह से समूचे घटनाक्रम को सामने रखा गया मानो भारतीय
कानून व्यवस्था ने किसी भोले-भाले, मासूम, निरपराध को फाँसी की सजा सुना दी हो.
कानून ने अपना काम पूरी पारदर्शिता से करते हुए आधी रात के बाद भी न्यायालय के
द्वार खोलते हुए एक अपराधी की, एक आतंकी की फरियाद को सुना और ब्रह्ममुहूर्त में
आतंकी को फाँसी देने का अटल निर्णय बनाये रखा. अंततः एक आतंकवादी को फाँसी की सजा
दे दी गई.
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इस मामले में समाज के जागरूक लोगों के एक वर्ग का एकजुट
होकर आतंकी की सजा पर तुष्टिकरण की नीति को अपनाना, राजनीति करना अपने आपमें दुखद
घटनाक्रम कहा जा सकता है. आतंकवादी के पक्ष में सहानुभूति दर्शाने वालों का
उद्देश्य किसी न किसी रूप में ये साबित करना था कि वर्तमान केन्द्र सरकार ने
सम्बंधित आतंकवादी को मुसलमान होने के कारण से फाँसी की सजा सुनाई. उन सबका मकसद
सिर्फ ये दर्शाना था कि वे ही समूचे देश में मुसलमानों के एकमात्र और सच्चे हितैषी
हैं और केन्द्र सरकार अथवा नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के घोर विरोधी हैं. ये लोग
बताना चाह रहे थे कि उन्होंने एक इन्सान के लिए संघर्ष किया जबकि केन्द्र सरकार
जानबूझ कर एक व्यक्ति को फाँसी पर लटकाने को आमादा है. एक आतंकी की फाँसी की सजा
का विरोध करने वालों के मूल में फाँसी की सजा का विरोध करना नहीं था, एक इन्सान को
बचाना नहीं था, देश से फाँसी की सजा के प्रावधान को समाप्त करवाना नहीं था वरन उन
सबका एकमात्र लक्ष्य केन्द्र सरकार का, भाजपा का, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का
विरोध करना था. यदि ऐसा नहीं था तो फिर इन लोगों के द्वारा दो-एक वर्ष पूर्व अफज़ल
गुरू और कसाब की फाँसी का विरोध क्यों नहीं किया था? वे दोनों भी इन्सान थे, उन
दोनों को भी फाँसी की सजा दी गई थी, उन दोनों को फाँसी की सजा भारतीय कानूनी
प्रक्रिया के अंतर्गत सुनाई गई थी. सामाजिक परिवेश के हिसाब से इसका भी आकलन करना
होगा कि वर्तमान लोकसभा चुनाव के पूर्व जिस तरह से भाजपा को, मोदी को मुस्लिम समाज
के लिए घनघोर खतरा बताया जा रहा था कहीं ये विरोध उसी तरह का सुनियोजित षड्यंत्र
तो नहीं?
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इस तथाकथित बुद्धिजीवी, मानवाधिकारी वर्ग के द्वारा महज
फाँसी का विरोध में सरकार ने अपने स्तर पर पर्याप्त सूझबूझ का परिचय दिया. उसे एक
तरफ समाज में इस सन्देश को प्रसारित करना था कि सम्बंधित अपराधी को फाँसी उसके
आतंकवादी होने के कारण दी जा रही है न कि उसके मुस्लिम होने के कारण. इसी के साथ
सरकार को समाज में साम्प्रदायिक विभेद को फैलने से बचाना भी था. फाँसी के इस विरोध
के चलते वे सारी ताकतें जो किसी न किसी रूप में समाज में हिन्दू-मुस्लिम विभेद को
फ़ैलाने का काम करती हैं, साम्प्रदायिक विभेद लाने का काम करती हैं, प्रत्येक घटना
को हिन्दू-मुस्लिम रंग में रंगने की कोशिश करती हैं, भी सक्रिय हो गई थी. उनके
द्वारा आतंकी की फाँसी के बाद उसकी शवयात्रा निकालने के पूरा प्रबंध कर लिया गया
था, जिसे रोकना भी सरकार की, प्रशासन की प्राथमिकता में था. देखा जाये तो मुस्लिम
तुष्टिकरण की नीति ने समाज से सही एवं गलत की पहचान को लगभग समाप्त कर दिया है.
यहाँ आतंकवाद का भले ही कोई धर्म नहीं होता हो किन्तु एक आतंकवादी का धर्म
निर्धारित होने लगता है. बदले की कार्यवाही का पुरजोर विरोध किया जाता है किन्तु
देश में इस्लामिक आतंकवाद का कारण बाबरी ढांचे के विध्वंस को बताया जाता है. यदि
इस अतार्किक बिन्दु को सत्य भी मान लिया जाये तो भी एक बात समझ से परे है कि आखिर
एक ढांचे के विध्वंस पर कितनी-कितनी बार, कहाँ-कहाँ, किस-किस तरह से बदला लिया
जायेगा? यदि बदला लेने की ये प्रक्रिया मुस्लिम तुष्टिकरण की दृष्टि से जायज़ है,
स्वीकार्य है तो फिर एक गोधरा के विरोध में होने वाले एकमात्र गुजरात काण्ड को स्वीकार्यता
क्यों प्राप्त नहीं होती? यहाँ आकर सोचने की आवश्यकता है कि की समाज में अब
आतंकियों को भी हिन्दू-मुस्लिम की दृष्टि से अलग-अलग बाँटकर सजा का प्रावधान किया
जाया करेगा? यहाँ ये तय करना होगा कि बुद्धिजीवी कहे जाने वालों का धर्म मजहबी
दृष्टिकोण से आतंकियों को बचाने का ही रहेगा?
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अब
जबकि आतंकवादी को फाँसी दे दी गई है, उसका अंतिम संस्कार भी शांतिपूर्ण ढंग से हो
गया है, फाँसी के विरोधी बुद्धिजीवी भी शांति से अपने-अपने घरौंदों में बैठ चुके
हैं तब सरकार द्वारा ‘पोर्न साइट्स’ के प्रतिबन्ध पर उठने वाला विरोध समाज में
तेजी से फैलती सरकार-विरोधी मानसिकता का परिचायक है. भले ही सरकार ने पोर्न साइट्स
पर प्रतिबन्ध पर यू-टर्न ले लिया हो किन्तु समाज के एक वर्ग विशेष की मानसिकता
सामने आ चुकी है. कुल मिलाकर इतना ही कहा जा सकता है कि ऐसे वर्ग का, ऐसे लोगों का
विरोध करने की मानसिकता रखना किसी सार्थकता के लिए नहीं वरन केन्द्र सरकार के,
भाजपा के, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध के लिए ही है. समाज में तेजी से
फैलता ये दृष्टिकोण किसी सरकार के लिए नहीं वरन समाज के लिए ही घातक सिद्ध होगा.
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