12 जनवरी 2015

घर-घर में बनते छोटे-छोटे कबीले



आदिमानव से मानव और फिर महामानव बनने की होड़ में इंसान जहाँ से चला था, शायद वहीं पहुँचने को तैयार हो चुका है. ऐसा उसके द्वारा जानबूझ कर कतई नहीं किया जा रहा किन्तु प्रकृति के नियम को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता है. एक स्थान से आरम्भ हुई यात्रा अपने समापन बिंदु तक पहुँचती है, शायद इसी सिद्धांत का पालन इंसानी विकास-यात्रा द्वारा भी किया जा रहा है. तकनीकी रूप से सक्षम हैं, शिक्षा के मामले में भी अग्रणी हैं, ज्ञान-विज्ञान में कहीं कोई कसर नहीं, धरती के साथ-साथ सागर, अंतरिक्ष को भी क़दमों तले कर डाला है, बहुत हद तक जीवन को भी जीतने के प्रयासों में सफलता प्राप्त कर ली है किन्तु इसके बाद भी ऐसा एहसास होता है कि जैसे सब कुछ होते हुए भी हाथ खाली हैं. वैचारिक रूप से समृद्ध होने के बाद भी वैचारिक क्षुद्रता दिखलाई देती है; साधन संपन्न होने के बाद भी साधनहीन महसूस किया जाता है; धनवान बनते-बनते कहीं कंगाली सी नज़र आती है. ये अजब विरोधाभास है जहाँ सबकुछ होते हुए भी अपने पास कुछ नहीं दिखता है. इंसानी बस्ती में होने-रहने के बाद भी निपट तन्हाई महसूस होती है; सभ्यता के, संस्कृति के नए-नए अध्याय रचने के बाद भी कबीलाई संस्कृति से ऊपर नहीं उठ सके हैं.
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संभवतः ये आश्चर्य लगे उन लोगों को समाज को इक्कीसवीं सदी में बहुत-बहुत आगे ले जाने का दम भरते दिखते हैं. हो सकता है बहुत बुरा लगे उन लोगों को भी जिनके लिए वर्तमान समाज एक आदर्शवादी व्यवस्था का निर्माण करने में लगा है. एक ऐसे समाज में जहाँ सड़क चलती महिलाओं, लडकियों, बच्चियों को छेड़ा जाता हो; जहाँ बेटी समाज के साथ-साथ गर्भ तक में असुरक्षित हो; जहाँ पल-पल के हिसाब से महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा हो; जहाँ डकैती, हत्याएँ, अपराध आम बात हो गई हो; जहाँ खुलेआम घरों में घुसकर कब्ज़ा ज़माने की प्रवृत्ति काम कर रही हो; जहाँ भेदभाव अपने चरम पर हो; जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति में धार्मिक, क्षेत्रीय, जातीय भावनाएँ फूट डाल रही हों वहाँ पर सभ्य समाज की परिकल्पना बेमानी सी लगती है. ऐसा लगता है जैसे कि हम सभी आधुनिक संसाधनों का सहारा लेकर कबीलाई संस्कृति में जी रहे हैं. क्या कहा जाए इसे, घरों में कई-कई मकान बन गए हैं; रिश्तों में आपस में मर्यादा, संस्कार समाप्त हो गए हैं; यौन-संस्कृति ने सभी संबंधों को पूर्णतः मिटा सा दिया है, ये सब कबीलाई सभ्यता की ही याद दिलाते हैं.
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महज ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएँ बना लेने से, मंहगी-महंगी करों में सफ़र कर लेने से, उन्नत किस्म की तकनीकी के सहारे जीवन व्यतीत कर लेने मात्र से ही समाज की सभ्यता का पता नहीं लगता है. संवेदनाओं, सहयोग, समन्वय, परोपकार आदि की भावनाएँ मृत सी दिख रही हैं. बिना इनके काहे का सभ्य समाज, काहे की इंसानियत. आखिर हम सब शिक्षित कहलाते हैं, अपनी आने वाली पीढ़ी को भी शिक्षित बनाते हैं किन्तु उसे बताना भूल जाते हैं कि जीवन-मूल्य क्या हैं. हम उसे समझाना भूल जाते हैं कि अपने साथ-साथ समाज के लिए जीना भी हमारा जीवन है. उसे हम बताना भूल जाते हैं कि इंसानी बस्ती में स्नेह, प्रेमभाव आदि ही वे भावनाएँ हैं जिनके द्वारा समाज सभ्य कहलाता है. जरा-जरा सी बात पर उग्र हो जाना, इंच-इंच भूमि के लिए हत्याएँ कर देना, पारिवारिक इज्जत के नाम पर मौत बाँट देना, महिलाओं को भोग की वस्तु मान लेना आदि हमें कबीलाई संस्कृति की तरफ ले जा रहे हैं. गौर से देखिये, कैसे एक-एक घर के भीतर कई-कई कबीले जन्म ले चुके हैं.

1 टिप्पणी:

  1. सच यह सब कबीलाई संस्कृति से कम नहीं..संवेदना नहीं तो फिर काहे का इंसान और कैसा इंसान ..
    चिंतनशील प्रस्तुति हेतु आभार!
    मकर सक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं!

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