अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर फिर बंदूकों ने कब्ज़ा करने
की कोशिश करते हुए कुछ लोगों के जीवन को शांत कर दिया. प्रथम दृष्टया हत्याकांड की
किसी भी घटना की तरह इस घटना की भी भर्त्सना की जानी चाहिए, और ऐसा हो भी रहा है. समूचे
विश्व से कार्टून के विरोध में पत्रकारों, कार्टूनिस्ट की हत्या की निंदा की जा
रही है. इसके बाद भी कहीं कुछ ऐसा है जो समूचे घटनाक्रम को दूसरी तरह से देखने को
प्रेरित करता है. इसके लिए बने हुए कार्टूनों को समझने की आवश्यकता है, उसके पीछे
की मानसिकता को समझने की जरूरत है. इस्लामिक संगठनों का साफ तौर पर कहना है कि इन
कार्टून के माध्यम से मुहम्मद साहब का मजाक बनाया गया है. अब इसी सन्दर्भ में
प्रकाशित कार्टून को देखा जाये तो ऐसा प्रतीत भी होता है. यहाँ आकर सवाल खड़ा होता
है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी की भी धार्मिक भावनाओं का
मजाक बनाया जा सकता है? यहाँ समूचे घटनाक्रम को महज आतंकी हमले की नजर से देखने की
आवश्यकता नहीं है.
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फ़्रांस की इस पत्रिका का विवादों से सम्बन्ध रहा है,
इसके द्वारा किसी समय में ननों के व्यव्हार, उनकी जीवनशैली को लेकर भी कार्टून
बनाये गए थे, जो पर्याप्त विवाद का कारण बने थे. अब जबकि अपने मजहबी कट्टरपन के
लिए समूचे विश्व में कुख्यात माने जाने वाले इस्लामिक प्रतीक पर कार्टून बनाना
पत्रिका को महंगा पड़ गया. यहाँ किसी भी तरह की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ के
सापेक्ष हत्याकांड को सही ठहराया जाने का मंतव्य नहीं है वरन ये दर्शाने की भावना
है कि आखिर क्यों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर धार्मिक भावनाओं के साथ
खिलवाड़ किया जाता है? वैश्विक स्तर पर ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है. संभवतः
इस्लामिक धार्मिक कट्टरता के लिए ऐसा मौका बहुत अधिक बार नहीं आया और उनके द्वारा
इसका उग्र, घातक विरोध दर्शा कर भविष्य के लिए भी ऐसे घटनाक्रमों को एक धमकी सी दे
दी गई है. इसके उलट यदि देखा जाये तो हिन्दू धर्म को आये दिन लतियाये जाने के
प्रकरण सामने आते रहते हैं. विरोध हुआ तो हुआ वर्ना सब समय के साथ अपने आप छिप
जाता है, शांत हो जाता है. वैश्विक स्तर पर ही कभी पैंटी पर देवी-देवताओं की
चित्रकारी, कभी चप्पलों पर धार्मिक प्रतीकों का प्राकशित किया जाना, कभी किसी मॉडल
की नग्न देह किसी धार्मिक कृत्य का आधार बनती है तो कभी कोई कलाकार कला का नाम
लेकर नग्न देवी-देवताओं को उकेर कर वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि पाने की कोशिश में
लग जाता है.
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ये सामाजिक स्तर पर शोध का विषय है कि आखिर किसी भी रूप
में अभिव्यक्ति के लिए मजहबी-धार्मिक भावनाओं को ही क्यों आधार बनाया जाता है? इधर
फ़्रांस की पत्रिका पर हुए हमले पर रोना-गाना मचा हुआ है वहीं देश में धार्मिक
भावनाओं के कारण ही करोड़ों का व्यापर कर चुकी फिल्म को सहजता से स्वीकार किया जा
रहा है, उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताकर कई राज्यों में टैक्स-फ्री किया जा
रहा है. धार्मिक भावनाओं से खेलने की प्रवृत्ति के पीछे के मनोविज्ञान को समझने की
जरूरत है क्योंकि आधुनिक समाज जिस तेजी से विज्ञान की तरफ बढ़ रहा है उसी तेजी से
वो धार्मिक कट्टरता की तरफ भी जा रहा है. समूचे विश्व में कट्टरता के दो ध्रुव अब
स्पष्ट रूप से दिख रहे हैं, जिनमें वैज्ञानिक कट्टरता के रूप में पश्चिमी देशों को
और धार्मिक कट्टरता के रूप में इस्लामिक देशों को सहजता से देखा जा सकता है. कट्टरता
की इस जीवनशैली में यदि बहुत जल्दी ही नियंत्रण न लाया गया तो ये समूचे विश्व के
लिए घातक सिद्ध होगा. भारत से बाहर निकलता दिखता इस्लामिक कट्टरपन इसका स्पष्ट
संकेत है.
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